Friday, August 3, 2018

RANK RESTRUCTURING IN THE ARMED FORCES


सेना में आने वाले बदलाव : देखें ऊँट किस करवट बैठता है

सेना के पदों में लगभग डेढ़ दशक पहले बदलाव हुए थे जब कि बग्गा कमीशन या ए वी सिंह कमेटी के सुझावों के तहत सेकंड लेफ्टिनेंट का पद समाप्त कर दिया गया और लेफ्टिनेंट कर्नल तक के पद को ‘टाइम स्केल’ कर दिया गया. सेना के बदलते ढांचे और कार्यप्रणाली को देखते हुए समय समय पर ऐसे बदलावों की आवश्यकता होती है. अब 35 वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद सेना अधिकारियों के पदों में बड़े बदलाव करने जा रही है और सेनाध्यक्ष ने इस वर्ष नवम्बर तक इस बारे में रिपोर्ट माँगी है. सेना में पदोन्नति एक जटिल प्रक्रिया है और हर पद पर अधिकारियों की संख्या निश्चित है. 70 के दशक में बीच में कहीं फाइटिंग आर्म्स और सर्विसेज को अलग करके अधिकारियों और उनके पदोन्नति से जुड़े मामलों में एक दरार आ चुकी है. इस के साथ ही वरिष्ठ अधिकारियों को कमांड और स्टाफ दो धाराओं में विभाजित करके कई सक्षम व्यक्तियों को को डिवीज़न, कोर और सेना की कमान का मौक़ा नहीं मिलता. ये फैसला ला कितना तर्कसंगत था, वादविवाद का विषय रहा है और अब भी है. इसके साथ ही अगर सिविल सर्विसेज को देखा जाये तो हर वेतन आयोग में उन्होंने सभी सेनाओं की उपेक्षा करते हुए पद क्रम में अपने अधिकारियों को बहुत आगे कर दिया है. एक आईएस अधिकारी 18 वर्ष की सेवा में संयुक्त सचिव (जॉइंट सेक्रेटरी) बन जाता है जो कि वेतनमान के हिसाब से मेजर जनरल (औसतन 28 वर्ष की सेवा के बाद चुनिन्दा अधिकारी ही इस पद को पा सकते हैं) के समकक्ष है. सेना में अफसरों के लिए नौ पद हैं जब कि सिविल सर्विसेज में केवल छह और चूंकि सिविल सेवा के अधिकारी ग्रुप A सेवाओं में आते हैं, सभी कम से कम जॉइंट सेक्रेटरी या समकक्ष पदों से सेवानिवृत्त होते है जब कि अधिकतर सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल या समकक्ष पद से. काम के हिसाब से सेना और एनी सेवाओं की कोई तुलना नहीं है और ऐसी बात से सेना के पदों की गरिमा ही कम होती है. पर ये तुलना सभी जगह होती है खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ दोनों सेवाओं के अधिकारी एक साथ काम कर रहे हैं. इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव रक्षा मंत्रालय में देखा जा सकता है. पुलिस और अन्य विभागों में चूंकि NFU लागू है, ‘अतिरिक्त’ प्रत्यय लगाकर हर पद पर बिना कार्यभार के पदोन्नति आम बात है. किसी राज्य में जहाँ एक महानिदेशक (डायरेक्टर जनरल) होना चाहिए 10 से 15 अतिरिक्त महानिदेशक होना आश्चर्य की बात नहीं है. पर सेना में पदोन्नति के लिए हर स्तर पर रिक्तियां  नियत हैं. वेकेंसी न होने पर काबिल से काबिल अधिकारी को भी पदोन्नत नहीं किया जा सकता. आम तौर पर हर पद पर लगभग 40% अधिकारियों कि छंटनी हो जाती है. ऐसे में मध्यम स्तर पर जहाँ अधिकारियों की बहुतायत है वहीं जूनियर और फील्ड में काम करने वाले पदों पर अधिकारियों की कमी है. इस से जूनियर पदों पर काम का बोझ बढ़ जता है और वहीं मध्यम पदों पर पदोन्नति के पर्याप्त अवसर न होने के कारन असंतोष. एक मुद्दा यह भी है कि बाकी सभी सेवाओं में रिटायरमेंट की आयु सीमा 60 वर्ष है, वहीं सेनाओं में पद के हिसाब से 99% से भी ज्यादा अधिकारी 54 से 58 की आयु में सेवा निवृत्त हो जाते हैं. बहुत कोशिश के बाद भी न तो सेना और न ही सरकार ऐसे अधिकारियों को एक अच्छा दूसरा/वैकल्पिक कैरियर देने में सफल रहे हैं. आवश्यकता है कि बाकी सेवाओं की ही तरह सेनाओं में भी सपोर्ट कैडर शामिल किया जाये और शार्ट सर्विस कमीशन को प्राथमिकता दी जाये. 5 और 10 वर्ष के कार्यकाल के बाद इन अधिकारियों को अन्य सरकारी/ अर्द्धसरकारी विभागों में शामिल किया जा सकता है. इस से न केवल सेना में प्रचुर मात्रा में अधिकारी मिल सकेंगे बल्कि पदोन्नति न मिलने से पैदा होने वाली विसंगति को भी ठीक किया जा सकेगा. साथ ही पूरा सरकारी तंत्र भी अच्छे अधिकारियों के आने से लाभान्वित होगा. सेना के बजट का एक बड़ा भाग बजट वेतन (2018-19 वित्त वर्ष में 80,945 करोड़ रुपए) और पेंशन (98,989 करोड़ रूपए) में जाता है, ज्ञातव्य रहे कि इसका भी एक मोटा हिस्सा रक्षा मंत्रालय के असैनिक कर्मचारी के लिए है जो कि न केवल पूरे 60 वर्ष की सेवा के बाद यानि अधिकतम वेतन (अधिकतम पेंशन) पर रिटायर होते हैं बल्कि बाकी सेवाओं की तरह एक रैंक एक एक पेंशन (OROP) और NFU के तहत पदोन्नति के भी हकदार होते हैं. मीडिया रिपोर्ट देखें तो लगेगा कि रक्षा बजट का हिस्सा सिर्फ सैनिकों और अधिकारियों के वेतन और पेंशन पर खर्च होता है, पर वास्तविक स्थिति कुछ और है.
एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा ये भी है कि सेना ने कई और विभागों जैसे कि DGQA, ऑर्डनेन्स फैक्ट्रीज, MES इत्यादि को भी अधिकारी दिए हुए हैं, जो कि सेना में अधिकारियों की संख्या बढ़ाते हैं और आंकड़ों को गलत दिशा में ले जाते हैं. समय है कि सेना इन सब विभागों से नाता तोड़े और केवल युद्ध से सीधे संबंधित विभागों को ही प्राथमिकता दे. इसी तरह सेना में सेवा वर्ग (सर्विसेस) के कई विभागों में जैसे चिकित्सा, EME, ENGINEERS, RVC, ASC, ऑर्डनेन्स कोर की कार्यप्रणाली में बदलाव ला कर दूसरी(असैनिक) एजेंसियों को शामिल किया जा सकता है. 
ये कहना गलत नहीं होगा कि आतंरिक नीतियों की वजह से सेना में अधिकारी पदों में बदलाव न होने के कारण एक बड़ा वर्ग पदोन्नति न पाकर असंतुष्ट है. कई विभागों को छोटा कर के और उनकी कार्यप्रणाली में बदलाव और सुधार ला कर स्थिति में परिवर्तन लाया जा सकता है. साथ ही अधिकारियों के कार्यकाल और भर्ती की प्रक्रिया में शार्ट सर्विस कमीशन को प्राथमिकता दे कर और मौजूदा अधिकारी पदों में कमी करके, जिसमें ब्रिगेडियर के पद को हटाने का अनुमोदन शामिल है, सेना वर्ष के अंत तक बड़े परिवर्तन लाने जा रही है. इस से जुड़े और कई मुद्दे हैं जिन पर चर्चा चल रही है. मीडियावाला की टीम अपने पाठकों को इस मुद्दे के सभी पहलुओं की विस्तृत जानकारी देगी. 


संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कमीशन आयोग की कश्मीर रिपोर्ट का सत्य
अंतराष्ट्रीय संस्था भी पाकिस्तानी प्रोपेगेंडा का शिकार

हाल ही में कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र  के मानवाधिकार योग की रिपोर्ट चर्चा में थी. इस से पहले कि रिपोर्ट पर बात की जाए, ये जान लेना आवश्यक है कि मानवाधिकार आयोग क्या है और योग के हाई कमिश्नर कौन हैं. मानवाधिकार योग का गठन 1993 में हुआ था और इसका स्थायी कार्यालय जेनेवा में है. इसके हाई कमिश्नर जॉर्डन में जन्मे ज़ैद राद अल हुसैन इस पद को पाने वाले पहले एशियाई और अरब हैं. हुसैन आयोग के सातवें अध्यक्ष हैं.

मानवधिकार आयोग में 47 सदस्य देश हैं. भारत भी 2017 तक इस आयोग का सदस्य राष्ट्र था. यहाँ तक कि अमरीका ने, जिसकी सदस्यता 2019 तक थी, आयोग से अपना नाम वापस ले लिया है और आयोग पर इजराइल के मामले में पक्षपात का आरोप लगाया है.
कश्मीर पर 49 पन्नों की रिपोर्ट पाकिस्तान के सफल प्रचार का नतीजा है और संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी सचिव राजीव के चंदर ने इस रिपोर्ट की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए इसे ख़ारिज कर दिया है. इसके कारणों पर जाएँ और रिपोर्ट को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि कश्मीर में भारतीय सेनाओं के हर काम पर ऊँगली उठाई गयी है और रिपोर्ट में दिए गए आंकड़े तथ्यों पर आधारित न हो कर ‘जम्मू कश्मीर कोएलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटी’ नामक भ्रामक संस्था पर आधारित हैं. रिपोर्ट में आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद हुई हिंसा की सारी ज़िम्मेदारी सुरक्षा बलों पर डाली गयी है. यहाँ तक कि आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन को भी सिर्फ  सशस्त्र संगठन कहा गया है. पाकिस्तान के कश्मीर में आतंकियों और अलगाववादियों को खुले समर्थन और नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सेना द्वारा भारत के नागरिक इलाकों में गोलाबारी का रिपोर्ट में ज़िक्र भी नहीं है. सेना की कार्रवाही में मारे गए आतंकियों को निरपराध नागरिक करार दे के आंकड़ों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया है.  पत्थरबाज़ों की भीड़ द्वारा मारे गए और घायल हुए सैनिकों का ज़िक्र तक नहीं है. कश्मीर में न्यायालयों और ट्रिब्यूनलों को न्याय के रास्ते का अवरोध बताया गया है. रिपोर्ट में अत्याचार, यौन उत्पीड़न और नागरिकों के गायब होने के गंभीर आरोप सुरक्षा बलों पर लगाये गए हैं. ध्यान रहे कि कश्मीर में सुरक्षा बालों द्वारा यौन उत्पीड़न के एक भी मामले की रिपोर्ट तक नहीं है. इसलिए ये रिपोर्ट न केवल भ्रामक है बल्कि सीधे सीधे पाकिस्तानी प्रचार का एक और उदहारण है और आश्चर्य की बात है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय संस्था भी ऐसे भुलावे में आ गयी है.


रिपोर्ट जारी होने का समय भी ध्यान देने लायक है. रमजान के माह में जब कि गृह मंत्रालय ने कश्मीर में सेनाओं के एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की थी, वहीं ये रिपोर्ट आम जनता को भड़काने के लिए ठीक उसी समय रखी गयी. ये भी जानने योग्य तथ्य है कि 6 जुलाई को जेनेवा में होने वाले मानवाधिकार सम्मलेन में एफ़एटीएफ़ (FATF) ने पाकिस्तान द्वारा आतंकियों को आर्थिक समर्थन पर अपनी रिपोर्ट पेश करनी है.
मानवाधिकार हनन के मामलों पर एक नज़र डालें तो 1994 से ले कर 31 मई 2018 तक कुल मिलाकर 1037 शिकायतें मिली हैं जिन में से 1022 को जांच हो चुकी है और 15 की जाँच चल रही है. 1022 में से 991 मामलों को झूठा और निराधार पाया गया है. 31 मामलों में 70 लोगों को सज़ा हो चुकी है और 18 को हरजाना दिया हजा चुका है. इस प्रकार 97 प्रतिशत मामले गलत और सुनियोजित प्रचार तंत्र का हिस्सा हैं. दुर्भाग्य की बात है कि देश की मानवाधिकार संस्थाएं इस बात का संज्ञान नहीं लेतीं और न ही मीडिया इस बात पर चर्चा करने का इच्छुक है. ऐसी स्थिति में सैनिकों को झूठे मामलों में फंसा कर सेनाओं का मनोबल कम किया जा रहा है और पाकिस्तान अपने इस एजेंडे में पूरी तरह से सफल रहा है. हमारे गृह और रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों को चाहिए कि इस मुद्दे के तथ्यों को देश और विश्व के सामने लाएँ नहीं तो विश्व में हमारी छवि धूमिल होती रहेगी.


Monday, June 11, 2018

पत्थरबाजों को माफ़ी : सही हल क्या है ?






आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई उतनी आसान नहीं है जितना आप हम समझते हैं. वो भी तब जब कि लड़ाई का इलाका अपने ही देश में है. उसपर भी अगर आपका पड़ोसी देश आतंकवाद के साथ एक छद्म युद्ध भी जोड़ दे तो मसला और भी गंभीर हो जाता है और उसके साथ यदि दुनिया के एक बड़े धर्म को भी मिला दिया जाये तो आप पायेंगे कि समस्या का हल लगभग असंभव है. फिर शैतान को पत्थर मारना जैसी धारणा युवकों को घुट्टी में पिला  दी गयी है और जब पत्थर फेंकने वाले को यकीन हो जाए कि पत्थर मारना उसके धार्मिक दायित्व का अंग है तो केवल बातचीत या फिर गोली से समस्या सुलझने वाली नहीं है. धर्म को हम समझते नहीं हैं और फिर धर्म की परिभाषा जब उसके स्वयंभू ठेकेदार अपनी सहूलियत से तय करें तो मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं . वो ‘रमी अल ज़मार्रत’ कह कर शैतान पर पत्थर फेंक रहे हैं, आप बचाव में भी गोली चलाते हैं तो उसे इस्लाम पर हमला करार दे के उसे भी आपके ही खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है और आपके चित्र और वीडिओ इत्यादि युवाओं की नयी जमात को उकसाने और भड़काने के काम आते हैं . दुनिया भर की मानवाधिकार संस्थाओं के लिए ये सब आग में घी का काम करते हैं. फिलिस्तीन में पत्थरबाज़ी 1990 से इस्रायली सेना के खिलाफ शरू हुई थी . कश्मीरी युवाओं का मानना है कि पत्थर फेंकने से वो दुनिया भर का ध्यान खींच रहे हैं, और अपना गुस्सा भी ज़ाहिर कर रहे हैं. पत्थर फेंकना आतंकवाद की परिभाषा से परे है, इसलिए बन्दूक उठाकर आतंकवादी कहलाने से अच्छा है पत्थर फेंके जाएँ. हमारी सेनाएँ एक ऐसी लड़ाई लड़ रही हैं, जिसमें लड़ाई के मैदान का दायरा तय नहीं है. पेलेट गन लायी गयी तो कश्मीर के शातिर लोगों ने बच्चों और औरतों को आगे कर दिया. तस्वीरों को तोड़ मरोड़ कर ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि सरकार को पेलेट गन के इस्तेमाल को रोकना पड़ा. नतीजा ये है कि अब हर सैन्य टुकड़ी को,  चाहे वो कुछ भी कर रही हो, पत्थर फेंक कर उकसाया जाता है और फिर स्थिति को काबू से बाहर होने तक ले जा कर सेनाओं को जवाबी कार्रवाही के लिए मजबूर किया जाता है. पत्थर फेंकने के लिए भीड़ का इस्तेमाल इस लड़ाई का नया नियम बन गया है, आप गोली चलाएंगे या बचाव में कुछ भी करेंगे तो उसका वीडियो इत्यादि बना कर सोशल मीडिया पर तुरंत डाला जाएगा और कुछ ही घंटे में ऐसे वीडियो पूरी दुनिया में फ़ैल जायेंगे. पत्थरबाज़ी में जो सैनिक घायल होते हैं, या मरते हैं, उनके लिए कोई बचाव नहीं है. बचाव दल आता है तो सुनियोजित ढंग से उस पर भी पत्थर फेंके जाते हैं. स्थिति और बिगड़ जाती है.
इसका एक बड़ा कारण है कि सैनिकों पर पत्थर फेंकने के खिलाफ कोई कानून नहीं है. आतंक के विरुद्ध युद्ध में मज़बूत न्यायिक प्रक्रिया एक बड़ा हिस्सा है. कानून बनाना और उसे पारित करना सरकार के हाथ में है. सैनिकों को इसके लिए विशेष प्रशिक्षण और उपकरण चाहियें. वो नहीं है. AK 47 या INSAS राइफल से लैस सैनिक पत्थर बाज़ों से बचने के लिए सिर्फ गोली ही चला सकता है. उसे NON LETHAL हथियार जैसे वाटर कैनन इत्यादि मुहैया करने होंगे. साथ ही कैमरा टीम और पुलिस की मिली जुली कार्रवाही से इनके लीडरों को कानून के तहत लाना होगा. नकाबपोशों की पहचान करने के लिए कई इलेक्ट्रोनिक उपकरण और तरीके मौजूद हैं जिनका इस्तेमाल दुनिया भर की सुरक्षा एजेंसियाँ कर रही हैं. सैनिक दस्तों को रास्तों की जानकारी के लिए कैमरा युक्त ड्रोन उनके साथ चलाने होंगे. साथ ही अश्रुगैस और STUN GRENADE जैसे तरीकों का इस्तेमाल करना होगा. स्थिति बिगड़ने की हालत में गोली का इस्तेमाल और तत्पश्चात तुरंत कानूनी कार्यवाही ताकि सैनिक के अधिकारों की रक्षा की जा सके.
इसके साथ ही सोशल मीडिया पर इस लड़ाई के लिए पूरी टीम गठित कीजिये. इसमें भी विशेषज्ञों का एक दल चाहिए जो कि पत्थर फेंकने वालों और सोशल मीडिया पर उनके समर्थकों को उसमय पर पयुक्त उत्तर दे सकें. ट्विटर और फेसबुक पर पाकिस्तानी एजेंट और भड़काऊ तत्व कश्मीर के युवकों को नैतिक समर्थन देते हैं. ध्यान रहे कि ऊतर पूर्वी क्षेत्रों में आतंकियों से निपटने के लिए पाकिस्तानी सेना खुद लड़ाकू जहाजों और बड़ी तोपों का प्रयोग कई वर्षों से कर रही है. जब तक हमारी सुरक्षा एजेंसियाँ इस का हल नहीं ढूँढतीं और देश में ऐसे तत्वों के विरुद्ध सख्त कार्रवाही नहीं की जाती स्थिति नहीं बदलने वाली. अभी सेना और अन्य बलों के बीच समन्वय की कमी है. यूनिफाइड हेडक्वार्टर सिर्फ नाम का है और सेना और राज्य सरकार के बीच कई मुद्दों पर एक मतभेद है. सबसे बड़ी बात है कि सैनिक जो कि सुदूर इलाकों में तैनात हैं, उनके पास कोई स्पष्ट आदेश नहीं है. मेजर गोगोई ने जो किया वो इस स्थिति का महत्वपूर्ण उदहारण है. याद रहे कि कश्मीर कि लड़ाई दिल्ली में भी लड़ी जा रही है. प्रचार तंत्र को इसमें शामिल करना होगा. राष्ट्रीय चैनलों पर इस बारे में स्वच्छ भारत की तर्ज़ पर मुहिम छेड़नी होगी. योग दिवस इत्यादि के लिए जितना खर्च होता है उसका एक प्तारिशत भी अगर अपने सैनिकों के लिए किया जाए तो सोच में परिवर्तन आयेगा. गलतबयानी के लिए कई मीडिया कर्मियों को पहले चेताना होगा बाद में कानून के तहत लाना होगा. देश की सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में देश को प्राथमिकता देनी होगी. एक  बड़ा मुद्दा यह भी है कि सरकारी अधिकारी या नेता जो भी बयान दें, वो भावावेश में न दे कर सोची समझी नीति के तहत हों. ये तय है कि सैनिकों पर किसी भी प्रकार से हमला अपराध है तो फिर इसमें लिप्त लोगों को किसी भी प्रकार की सुरक्षा क्यूँ? यकीन मानिए, पत्थर बाज़ी से बचते हुए सैनिकों के वीडियो, भीड़ के चित्र और अखबार में मंत्री जी का युवाओं की गलती मान कर माफ़ी देने जैसे बयान, देश की जनता के गले नहीं उतरते. ऐसी घोषणाओं का सैनिकों के मनोबल पर कितना विपरीत असर पड़ता है, सोचने की बात है.

उत्तरी कमान के कमांडर के लिए चुनौतियाँ






सर्जिकल स्ट्राइक ख्याति के जनरल रणबीर सिंह ने 01 जून को  उत्तरी कमान की बागडोर संभाल ली है.भारतीय सेना की उत्तरी कमान हमेशा से आपरेशंस में रही है. और यही अकेली कमान भी है जो कि चीन और पकिस्तान दोनों ही प्रतिद्वंदियों के विरुद्ध तैनात है. इसके साथ ही कमान पर कश्मीर घाटी में चल रहे आतंकवादियों के खिलाफ अभियान की भी ज़िम्मेदारी है. इसलिए उत्तरी कमान के कमांडर का इन सब विषयों में पारंगत होना निहायत ज़रूरी है. एक ऐसे समय में जब कि आतंकियों की कमर टूट चुकी है, उत्तरी कमान के सर्वोच्च अधिकारी की ज़िम्मेदारी है कि न केवल आतंकियों पर दबाव बना कर रखा जाये, बल्कि पुलिस और अन्य  सुरक्षा बलों के साथ मिल कर ऐसी स्थिति पैदा की जाये कि आम आदमी सुरक्षित महसूस करे. इसके साथ ही ऐसी हर बात को जिस को कि अलगाववादी तत्व और आतंकवादी आम जनता को बहकाने में इस्तेमाल कर सकें, मद्देनज़र रखना होगा. उत्तरी कमान का इलाका बहुत विस्तृत है और लड़ाई के प्रकार असंख्य. सियाचिन, नियंत्रण रेखा, चीन, घाटी, सीमा पार से घुसपैठ और घाटी में तनाव का माहौल जनरल के समक्ष बड़ी चुनौतियाँ हैं. इसके अलावा सोशल मीडिया पर जो छद्म युद्ध चल रहा है उस पर भी कड़ी नज़र रखनी होगी. देश विदेश में भाड़े की कई एजेंसियाँ मानवाधिकार मुद्दे को भुनाने में लगी हैं, इनसे निपटने के लिए भी कारगर कदम उठाने होंगे. राजनैतिक हल के लिए जनरल रणबीर को अनुकूल स्थिति देनी होगी और विभिन्न दलों को भी आपसी मतभेद मिटा कर दीर्घकालिक समाधान ढूंढना होगा. ऐसा अब तक हुआ नहीं है और राज्य के कई दल समक्ष और परोक्ष रूप से अलगाव का समर्थन करते रहे हैं. आतंकवादियों  की भरपूर कोशिश है कि शांति स्थापित न होने पाए. पकिस्तान की इस सस्ती युद्ध नीति का कारगर तोड़ खोजना जनरल रणबीर के लिए बड़ी चुनौती है. हाल ही में आतंकवादियों के बड़े कमांडरों को सुरक्षा बलों ने मार गिराया है. जनरल रणबीर की नीति तय करेगी कि कितनी जल्दी घाटी में सुरक्षा की स्थिति बदलती है. काम आसान नहीं है पर उत्तरी कमान कई दशकों से इन मुद्दों से जूझ रही है.
सभी प्रकार की युद्ध शैली में निपुण जनरल रणबीर ने देश और विदेश में सक्रिय सेवा की है और सेना मुख्यालय मिलिटरी आपरेशन शाखा में भी काफी समय तक  रहे हैं. उन्हीं के DGMO कार्यकाल के दौरान सीमापार आतंकी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक कर के हमारी युद्ध नीति में एक नए अध्याय की  शुरुआत हुई थी.  १९८० में डोगरा रेजिमेंट में कमीशन लेने वाले जनरल रणबीर का उत्तरी कमान की बागडोर संभालना कश्मीर समस्या पर हमारी गंभीरता का परिचायक है. ‘वर्दीवाला’ टीम जनरल रणबीर को एक अच्छे कार्यकाल की शुभकामना देती है.


महासागरों को मणिपुर की चुनौती : लेफ्टिनेंट विजया की शौर्य गाथा


देश के सुदूर पूर्व में छोटे से गाँव के एक किसान की बेटी क्या नहीं कर सकती अगर मन में ठान ले तो. यही कहानी है वर्दीवाला के इस अंक की नायिका की. आज से कुछ वर्ष पहले मणिपुर के बिश्नुपुर जिले में जन्मी विजया देवी ने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन वो दुनिया भर के महासागरों को एक छोटी सी नौका से चुनौती देगी. बिश्नुपुर, इम्फाल घाटी से लगा हुआ एक सुन्दर इलाका है जो कि किसी समय आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित था. ऐसे में वहाँ की लड़की का सेना में जाना अपने आप में एक बड़ी बात है.  न मणिपुर में न दिल्ली में अपनी स्नातकोत्तर पढाई करते समय विजया को कभी ये इल्म था कि वो एक दिन नौसेना की सफ़ेद वर्दी पहने गहरे नीले सागरों की सवारी करेगी. पिता कुंज्केश्वर  और माता बिनासखी देवी कि 29 वर्षीय पुत्री ने हाल ही में एवरेस्ट चढ़ने से भी कहीं ज्यादा जोखिम भरे काम को अंजाम दिया.  विजया ने दिल्ली से अंग्रेजी में एम.ए किया और तत्पश्चात बी. एड करने के बाद 2012 में नौसना की शिक्षा शाखा में बतौर अधिकारी प्रवेश लिया. हमेशा कुछ नया करने को तत्पर विजया को जब ‘तारिणी’ मिशन के लिए चुना गया तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. 6 महिला अधिकारियों की टीम ने कुल 8 महीनों में तीन महासागरों को पार किया और और चार महाद्वीपों में पाँच देशों की धरती पर पाँव रखा. 254 चुनौती भरे दिन और हर एक दिन ऊंची लहरों, ख़राब मौसम और अनजाने कितने ही खतरों से खेलती हुई विजया और उनकी टीम अभी हाल ही में वापस स्वदेश लौटी है.
मणिपुर राइफल्स से रिटायर हुए उनके पिता ने विजया को वर्दी की ओर आकर्षित किया. धुन की पक्की विजया ने कड़ी म्हणत और लगन से वर्दी पहनने के अपने सपने को साकार किया. तारिणी मिशन पर जाने से पहले विजया नौसेना अकादमी में 2 वर्ष तक प्रशिक्षक रह चुकी हैं. संगीत और कलाकारी की शौक़ीन लेफ्टिनेंट विजया ने नौसेना के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिख दिया है. उनकी शौर्यगाथा आतंकवाद से जूझ रहे मणिपुर के युवाओं को साहस और देशप्रेम का सबक देगी और चुनौतियों से मुकाबला करने की हिम्मत भी. विजया के विजयी जज़्बे को ‘वर्दीवाला’ टीम का सलाम. 

राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के शिक्षण स्टाफ पर सीबीआई का छापा ( देश की प्रमुख सैन्य शिक्षण संस्था के साथ गलत खिलवाड़ )

(वेब पोर्टल mediawala.in के अंतर्गत सेनाओं से जुड़े स्तम्भ 'वर्दीवाला' में मेरे लेख .... पढ़ते रहिये ....)

राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के शिक्षण स्टाफ पर सीबीआई का छापा
( देश की प्रमुख सैन्य शिक्षण संस्था के साथ गलत खिलवाड़ )

राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के शिक्षण स्टाफ पर सीबीआई का छापा
( देश की प्रमुख सैन्य शिक्षण संस्था के साथ गलत खिलवाड़ )

राष्ट्रीय रक्षा अकादमी देश की ही नहीं पूरे विश्व की सभी अकादमियों से अलग और ऊपर है. वहाँ तैयार होते हैं न केवल हमारी तीनों सेनाओं के भावी अधिकारी, बल्कि दूसरे देशों के प्रशिक्षु भी . मैंने अपने जीवन में कुछ अच्छा और नया सखा तो मैंने वहीं सीखा. देश, वर्दी, टीम, संघर्ष, भाईचारा, बलिदान  और भी न जाने कितने आदर्श जो कि आप हमें सिर्फ  पुस्तकों में मिलते हैं, राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में एक कैडेट के जीवन का अभिन्न अंग हैं. सैनिक जीवन के मूल मन्त्र किसी योगशाला या धर्मशाला में नहीं बल्कि ऐसे संस्थानों में मिलते हैं. ऐसे में सीबीआई की रेड और उसे एक अलग ही रंग देने का मीडिया का उतावलापन एक महान संस्थान की छवि पर ऊँगली उठाते हैं.

मैंने राष्ट्रीय रक्षा  में  अकादमी सन 1989 में  प्रवेश लिया और तीन वर्ष के लम्बे प्रशिक्षण में एक साधारण युवक से युवा सैनिक में परिवर्तित हो गया. अकादमी में JNU से  स्नातक की डिग्री मिलने का प्रावधान  है जिस के लिए  अकादमी की शिक्षा शाखा में असैनिक (सिविलियन)  स्टाफ होता है. हमारे समय के अध्यापक और विभागाध्यक्ष अकादमी के सैनिक प्रशिक्षकों से भी अधिक उत्साहित हुआ करते थे और कई शिक्षक तो दो से भी अधिक दशकों से वहाँ कार्यरत थे. ये वो समय था जब कि उनकी चयन प्रणाली में किसी बाहरी संस्था का हाथ नहीं था. असिस्टेंट प्रोफेसर के पद से कार्यकाल शुरू करने वाले अध्यापक एक एक सीढ़ी चढ़ के प्रोफेसर और फिर विभागाध्यक्ष के पद पर पहुँचते थे.  2007 के बाद ये ज़िम्मा UPSC को मिला और हर स्टार पर अलग चयन प्रक्रिया पर आधारित सीधी भर्तियाँ होने लगीं. साथ ही देश के बाकी संस्थानों में चयन प्रक्रिया में जो गड़बड़ियाँ और धांधलियां होती हैं, यहाँ भी धीरे धीरे आने लगीं. UPSC एक बड़ी संस्था है और उस पर ऊँगली नहीं उठाई जा रही. पर वहाँ काम करने वाले लोग देश की सुरक्षा की मर्यादा और उसकी गंभीरता से अपरिचित हैं.  मामले की जाँच चल रही है और शिक्षकों की नियुक्ति में बड़ी गड़बड़ी पायी गयी है. प्रधानाचार्य ओम प्रकाश शुक्ला के साथ कई  अन्य शिक्षक हैं जिन पर गलत दस्तावेज़ प्रस्तुत करके पहले प्रविष्टि और तत्पश्चात पदोन्नति पाने का आरोप लगा है. ध्यान रहे कि चयन प्रक्रिया से अकादमी को अलग रखने का नतीजा है कि ऐसे लोग राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में नियुक्त हो रहे हैं, जिनका अपना चरित्र संदिग्ध है. आग्रह है कि भ्रष्टाचार को इन संस्थाओं से परे रखें और इन संस्थाओं के भी चयन के नए मानदंड तय करें.  कृपा कर के सेना की नींव को कमज़ोर न करें. कैडेट, जिन्होंने आगे जा कर देश की सुरक्षा की बागडोर संभालनी है उनको  नैतिक, मानसिक और शारीरिक तौर पर सही प्रशिक्षण देना पूरे देश की साझी ज़िम्मेदारी है. मैंने उन तीन वर्षों में जितना सैन्य प्रशिक्षकों से सीखा उतना ही अपने सिविलियन शिक्षकों से भी. वो सब आज भी हमारी स्मृतियों का अभिन्न हिस्सा हैं क्यूंकि उस वक़्त वे सभी राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के आधार स्तम्भ थे. सीबीआई की जांच का अनुरोध भी रक्षा अकादमी के अधिकारियों ने ही किया था . सोचने और विचारने का विषय तो है ही, सख्त कदम उठाने का भी समय है. UPSC और चयन प्रक्रिया से जुड़े सभी महकमों को आतंरिक जाँच कर के गलत व्यक्तियों को दण्डित और निष्कासित करना होगा. राष्ट्रीय रक्षा अकादमी ही क्या किसी भी शिक्षण संस्थान की चयन प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए.

Wednesday, April 25, 2018

असमय नहीं था
अपना मिलना
तुम्हें जी लेना था
अपने में
मुझे भी खुद में
मिलने से पहले
याद कर लेने थे
प्रेम के अलावा वाले
सब पहाड़े
और देख लेनी थी दुनिया
नज़रिया बदलने से पहले
असमय तो कुछ भी नहीं होता
खिड़की के पल्ले से लटकी बूँद
कभी भी तुम्हारा
चेहरा बन जाने से पहले नहीं गिरी
धूप से बनी उस फूल की परछाई
तब तक नहीं बदली
जब तक तुम्हारा अक्स
नहीं उकेर लिया मैंने दीवार पर
असमय तो वो दवा भी
खत्म नहीं हुई थी
जिसे लेने की जल्दी में
टकराया था मैं तुम से
और तुमने ठीक समय पर ही कहा था
देख कर नहीं चल सकते
नहीं बोलती तो शायद
पहचान नहीं पाता
वो शब्द बिल्कुल नियत समय पर था
असमय था तो बस
मेरा वो पहले पहल हिचकिचाना
तुम्हें समय से पहले ही
सपना कर लेना
और फिर अपने ही संकोच में
उसे छू न पाना
असमय था वो वक़्त के आखिरी कुछ पलों का
अपने समय से पहले ही बीत जाना
और असमय है ये कविता
जानता हूँ कि
इसे कभी नहीं पढ़ोगी तुम
कि समय से चलता समय
एक समय के बाद
दीवार हो जाता है।
अमरदीप
23/04/2018