Wednesday, April 25, 2018

असमय नहीं था
अपना मिलना
तुम्हें जी लेना था
अपने में
मुझे भी खुद में
मिलने से पहले
याद कर लेने थे
प्रेम के अलावा वाले
सब पहाड़े
और देख लेनी थी दुनिया
नज़रिया बदलने से पहले
असमय तो कुछ भी नहीं होता
खिड़की के पल्ले से लटकी बूँद
कभी भी तुम्हारा
चेहरा बन जाने से पहले नहीं गिरी
धूप से बनी उस फूल की परछाई
तब तक नहीं बदली
जब तक तुम्हारा अक्स
नहीं उकेर लिया मैंने दीवार पर
असमय तो वो दवा भी
खत्म नहीं हुई थी
जिसे लेने की जल्दी में
टकराया था मैं तुम से
और तुमने ठीक समय पर ही कहा था
देख कर नहीं चल सकते
नहीं बोलती तो शायद
पहचान नहीं पाता
वो शब्द बिल्कुल नियत समय पर था
असमय था तो बस
मेरा वो पहले पहल हिचकिचाना
तुम्हें समय से पहले ही
सपना कर लेना
और फिर अपने ही संकोच में
उसे छू न पाना
असमय था वो वक़्त के आखिरी कुछ पलों का
अपने समय से पहले ही बीत जाना
और असमय है ये कविता
जानता हूँ कि
इसे कभी नहीं पढ़ोगी तुम
कि समय से चलता समय
एक समय के बाद
दीवार हो जाता है।
अमरदीप
23/04/2018

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