आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई उतनी आसान नहीं है
जितना आप हम समझते हैं. वो भी तब जब कि लड़ाई का इलाका अपने ही देश में है. उसपर भी
अगर आपका पड़ोसी देश आतंकवाद के साथ एक छद्म युद्ध भी जोड़ दे तो मसला और भी गंभीर
हो जाता है और उसके साथ यदि दुनिया के एक बड़े धर्म को भी मिला दिया जाये तो आप
पायेंगे कि समस्या का हल लगभग असंभव है. फिर शैतान को पत्थर मारना जैसी धारणा
युवकों को घुट्टी में पिला दी गयी है और जब
पत्थर फेंकने वाले को यकीन हो जाए कि पत्थर मारना उसके धार्मिक दायित्व का अंग है
तो केवल बातचीत या फिर गोली से समस्या सुलझने वाली नहीं है. धर्म को हम समझते नहीं
हैं और फिर धर्म की परिभाषा जब उसके स्वयंभू ठेकेदार अपनी सहूलियत से तय करें तो
मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं . वो ‘रमी अल ज़मार्रत’ कह कर शैतान पर पत्थर फेंक रहे
हैं, आप बचाव में भी गोली चलाते हैं तो उसे इस्लाम पर हमला करार दे के उसे भी आपके
ही खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है और आपके चित्र और वीडिओ इत्यादि युवाओं की नयी
जमात को उकसाने और भड़काने के काम आते हैं . दुनिया भर की मानवाधिकार संस्थाओं के
लिए ये सब आग में घी का काम करते हैं. फिलिस्तीन में पत्थरबाज़ी 1990 से इस्रायली
सेना के खिलाफ शरू हुई थी . कश्मीरी युवाओं का मानना है कि पत्थर फेंकने से वो
दुनिया भर का ध्यान खींच रहे हैं, और अपना गुस्सा भी ज़ाहिर कर रहे हैं. पत्थर
फेंकना आतंकवाद की परिभाषा से परे है, इसलिए बन्दूक उठाकर आतंकवादी कहलाने से
अच्छा है पत्थर फेंके जाएँ. हमारी सेनाएँ एक ऐसी लड़ाई लड़ रही हैं, जिसमें लड़ाई के
मैदान का दायरा तय नहीं है. पेलेट गन लायी गयी तो कश्मीर के शातिर लोगों ने बच्चों
और औरतों को आगे कर दिया. तस्वीरों को तोड़ मरोड़ कर ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि सरकार
को पेलेट गन के इस्तेमाल को रोकना पड़ा. नतीजा ये है कि अब हर सैन्य टुकड़ी को, चाहे वो कुछ भी कर रही हो, पत्थर फेंक कर उकसाया
जाता है और फिर स्थिति को काबू से बाहर होने तक ले जा कर सेनाओं को जवाबी
कार्रवाही के लिए मजबूर किया जाता है. पत्थर फेंकने के लिए भीड़ का इस्तेमाल इस
लड़ाई का नया नियम बन गया है, आप गोली चलाएंगे या बचाव में कुछ भी करेंगे तो उसका
वीडियो इत्यादि बना कर सोशल मीडिया पर तुरंत डाला जाएगा और कुछ ही घंटे में ऐसे
वीडियो पूरी दुनिया में फ़ैल जायेंगे. पत्थरबाज़ी में जो सैनिक घायल होते हैं, या
मरते हैं, उनके लिए कोई बचाव नहीं है. बचाव दल आता है तो सुनियोजित ढंग से उस पर
भी पत्थर फेंके जाते हैं. स्थिति और बिगड़ जाती है.
इसका एक बड़ा कारण है कि सैनिकों पर पत्थर
फेंकने के खिलाफ कोई कानून नहीं है. आतंक के विरुद्ध युद्ध में मज़बूत न्यायिक
प्रक्रिया एक बड़ा हिस्सा है. कानून बनाना और उसे पारित करना सरकार के हाथ में है.
सैनिकों को इसके लिए विशेष प्रशिक्षण और उपकरण चाहियें. वो नहीं है. AK 47 या
INSAS राइफल से लैस सैनिक पत्थर बाज़ों से बचने के लिए सिर्फ गोली ही चला सकता है.
उसे NON LETHAL हथियार जैसे वाटर कैनन इत्यादि मुहैया करने होंगे. साथ ही कैमरा
टीम और पुलिस की मिली जुली कार्रवाही से इनके लीडरों को कानून के तहत लाना होगा.
नकाबपोशों की पहचान करने के लिए कई इलेक्ट्रोनिक उपकरण और तरीके मौजूद हैं जिनका
इस्तेमाल दुनिया भर की सुरक्षा एजेंसियाँ कर रही हैं. सैनिक दस्तों को रास्तों की
जानकारी के लिए कैमरा युक्त ड्रोन उनके साथ चलाने होंगे. साथ ही अश्रुगैस और STUN
GRENADE जैसे तरीकों का इस्तेमाल करना होगा. स्थिति बिगड़ने की हालत में गोली का
इस्तेमाल और तत्पश्चात तुरंत कानूनी कार्यवाही ताकि सैनिक के अधिकारों की रक्षा की
जा सके.
इसके साथ ही सोशल मीडिया पर इस लड़ाई के लिए
पूरी टीम गठित कीजिये. इसमें भी विशेषज्ञों का एक दल चाहिए जो कि पत्थर फेंकने वालों
और सोशल मीडिया पर उनके समर्थकों को उसमय पर पयुक्त उत्तर दे सकें. ट्विटर और
फेसबुक पर पाकिस्तानी एजेंट और भड़काऊ तत्व कश्मीर के युवकों को नैतिक समर्थन देते
हैं. ध्यान रहे कि ऊतर पूर्वी क्षेत्रों में आतंकियों से निपटने के लिए पाकिस्तानी
सेना खुद लड़ाकू जहाजों और बड़ी तोपों का प्रयोग कई वर्षों से कर रही है. जब तक
हमारी सुरक्षा एजेंसियाँ इस का हल नहीं ढूँढतीं और देश में ऐसे तत्वों के विरुद्ध
सख्त कार्रवाही नहीं की जाती स्थिति नहीं बदलने वाली. अभी सेना और अन्य बलों के
बीच समन्वय की कमी है. यूनिफाइड हेडक्वार्टर सिर्फ नाम का है और सेना और राज्य
सरकार के बीच कई मुद्दों पर एक मतभेद है. सबसे बड़ी बात है कि सैनिक जो कि सुदूर
इलाकों में तैनात हैं, उनके पास कोई स्पष्ट आदेश नहीं है. मेजर गोगोई ने जो किया
वो इस स्थिति का महत्वपूर्ण उदहारण है. याद रहे कि कश्मीर कि लड़ाई दिल्ली में भी
लड़ी जा रही है. प्रचार तंत्र को इसमें शामिल करना होगा. राष्ट्रीय चैनलों पर इस
बारे में स्वच्छ भारत की तर्ज़ पर मुहिम छेड़नी होगी. योग दिवस इत्यादि के लिए जितना
खर्च होता है उसका एक प्तारिशत भी अगर अपने सैनिकों के लिए किया जाए तो सोच में
परिवर्तन आयेगा. गलतबयानी के लिए कई मीडिया कर्मियों को पहले चेताना होगा बाद में
कानून के तहत लाना होगा. देश की सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में देश को
प्राथमिकता देनी होगी. एक बड़ा मुद्दा यह
भी है कि सरकारी अधिकारी या नेता जो भी बयान दें, वो भावावेश में न दे कर सोची
समझी नीति के तहत हों. ये तय है कि सैनिकों पर किसी भी प्रकार से हमला अपराध है तो
फिर इसमें लिप्त लोगों को किसी भी प्रकार की सुरक्षा क्यूँ? यकीन मानिए, पत्थर
बाज़ी से बचते हुए सैनिकों के वीडियो, भीड़ के चित्र और अखबार में मंत्री जी का
युवाओं की गलती मान कर माफ़ी देने जैसे बयान, देश की जनता के गले नहीं उतरते. ऐसी
घोषणाओं का सैनिकों के मनोबल पर कितना विपरीत असर पड़ता है, सोचने की बात है.
सटीक
ReplyDelete