Friday, August 3, 2018


संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कमीशन आयोग की कश्मीर रिपोर्ट का सत्य
अंतराष्ट्रीय संस्था भी पाकिस्तानी प्रोपेगेंडा का शिकार

हाल ही में कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र  के मानवाधिकार योग की रिपोर्ट चर्चा में थी. इस से पहले कि रिपोर्ट पर बात की जाए, ये जान लेना आवश्यक है कि मानवाधिकार आयोग क्या है और योग के हाई कमिश्नर कौन हैं. मानवाधिकार योग का गठन 1993 में हुआ था और इसका स्थायी कार्यालय जेनेवा में है. इसके हाई कमिश्नर जॉर्डन में जन्मे ज़ैद राद अल हुसैन इस पद को पाने वाले पहले एशियाई और अरब हैं. हुसैन आयोग के सातवें अध्यक्ष हैं.

मानवधिकार आयोग में 47 सदस्य देश हैं. भारत भी 2017 तक इस आयोग का सदस्य राष्ट्र था. यहाँ तक कि अमरीका ने, जिसकी सदस्यता 2019 तक थी, आयोग से अपना नाम वापस ले लिया है और आयोग पर इजराइल के मामले में पक्षपात का आरोप लगाया है.
कश्मीर पर 49 पन्नों की रिपोर्ट पाकिस्तान के सफल प्रचार का नतीजा है और संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी सचिव राजीव के चंदर ने इस रिपोर्ट की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए इसे ख़ारिज कर दिया है. इसके कारणों पर जाएँ और रिपोर्ट को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि कश्मीर में भारतीय सेनाओं के हर काम पर ऊँगली उठाई गयी है और रिपोर्ट में दिए गए आंकड़े तथ्यों पर आधारित न हो कर ‘जम्मू कश्मीर कोएलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटी’ नामक भ्रामक संस्था पर आधारित हैं. रिपोर्ट में आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद हुई हिंसा की सारी ज़िम्मेदारी सुरक्षा बलों पर डाली गयी है. यहाँ तक कि आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन को भी सिर्फ  सशस्त्र संगठन कहा गया है. पाकिस्तान के कश्मीर में आतंकियों और अलगाववादियों को खुले समर्थन और नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सेना द्वारा भारत के नागरिक इलाकों में गोलाबारी का रिपोर्ट में ज़िक्र भी नहीं है. सेना की कार्रवाही में मारे गए आतंकियों को निरपराध नागरिक करार दे के आंकड़ों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया है.  पत्थरबाज़ों की भीड़ द्वारा मारे गए और घायल हुए सैनिकों का ज़िक्र तक नहीं है. कश्मीर में न्यायालयों और ट्रिब्यूनलों को न्याय के रास्ते का अवरोध बताया गया है. रिपोर्ट में अत्याचार, यौन उत्पीड़न और नागरिकों के गायब होने के गंभीर आरोप सुरक्षा बलों पर लगाये गए हैं. ध्यान रहे कि कश्मीर में सुरक्षा बालों द्वारा यौन उत्पीड़न के एक भी मामले की रिपोर्ट तक नहीं है. इसलिए ये रिपोर्ट न केवल भ्रामक है बल्कि सीधे सीधे पाकिस्तानी प्रचार का एक और उदहारण है और आश्चर्य की बात है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय संस्था भी ऐसे भुलावे में आ गयी है.


रिपोर्ट जारी होने का समय भी ध्यान देने लायक है. रमजान के माह में जब कि गृह मंत्रालय ने कश्मीर में सेनाओं के एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की थी, वहीं ये रिपोर्ट आम जनता को भड़काने के लिए ठीक उसी समय रखी गयी. ये भी जानने योग्य तथ्य है कि 6 जुलाई को जेनेवा में होने वाले मानवाधिकार सम्मलेन में एफ़एटीएफ़ (FATF) ने पाकिस्तान द्वारा आतंकियों को आर्थिक समर्थन पर अपनी रिपोर्ट पेश करनी है.
मानवाधिकार हनन के मामलों पर एक नज़र डालें तो 1994 से ले कर 31 मई 2018 तक कुल मिलाकर 1037 शिकायतें मिली हैं जिन में से 1022 को जांच हो चुकी है और 15 की जाँच चल रही है. 1022 में से 991 मामलों को झूठा और निराधार पाया गया है. 31 मामलों में 70 लोगों को सज़ा हो चुकी है और 18 को हरजाना दिया हजा चुका है. इस प्रकार 97 प्रतिशत मामले गलत और सुनियोजित प्रचार तंत्र का हिस्सा हैं. दुर्भाग्य की बात है कि देश की मानवाधिकार संस्थाएं इस बात का संज्ञान नहीं लेतीं और न ही मीडिया इस बात पर चर्चा करने का इच्छुक है. ऐसी स्थिति में सैनिकों को झूठे मामलों में फंसा कर सेनाओं का मनोबल कम किया जा रहा है और पाकिस्तान अपने इस एजेंडे में पूरी तरह से सफल रहा है. हमारे गृह और रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों को चाहिए कि इस मुद्दे के तथ्यों को देश और विश्व के सामने लाएँ नहीं तो विश्व में हमारी छवि धूमिल होती रहेगी.


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