Sunday, October 7, 2018

Lessons from recent trip to Dubai

Dear reader,
we had our first outing abroad and one learnt enough lessons... the same are penned below to help you plan an exciting trip. Feel free to get in touch in case you are planning to go out too....


LESSONS LEARNT DURING OUR RECENT TRIP TO DUBAI

1.            Passport Validity.            Check Passport validity well before you purchase the tickets. My kids’ passports were not renewed and I had 10 difficult days. This is a lesson for forgetful people like me.
2.            Airline Selection.            Select airline carefully. Spend additional 5k and travel like a king. For our return journey we chose Spice Jet, partly because it was cheaper and partly because it was taking off late from Dubai (2245 hrs), thus giving us full additional day at Dubai. But the experience was bad when we compared it with Emirates… our airlines from Delhi to Dubai. IT DOES MATTER. We booked two months in advance and return tickets per head cost us about 13k.
3.            Money Changer.              Without exploring the exchange rates, we just changed currency at Thomas Cook outlet at Delhi (T3), only to realise later on that we could have gone to others as well as bargained with Thomas Cook for a better rate. We carried a travellers card from ICICI bank as the swiping from debit as well as credit cards attracts additional charge. Indian currency is readily accepted though at a different exhange rate. Meals (nine in all) for four people and local shopping cost us around Rs 50k.
4.            Sim Card.             We purchased Etisalat tourist sim card at Dubai airport which worked out quite costly (Rs 2100 for 60 min of talktime, local as well as international and validity of 7 days). Better would have been activating international roaming on the local sim. Also video calling and voice calling over internet is banned in Dubai. (one can send voice notes as message though). Hotels and malls have free wifi so even if you don’t have data on your phone its ok.
5.            Itinerary.             One planned by the travel agency was good enough (4 days and 5 nights including Dhow Cruise, City Tour, Desert Safari & Burj Khalifa). Transfer costs are high and its better to hire a travel agency if you are a first timer. We spent just above Rs 1 lakh, for four of us for the entire trip excl air tickets and few meals. The cost included all transfers and hotel stay (2 rooms with breakfast). You can spend a little extra and select a better hotel though. We stayed in Bur Dubai where accomadation is reasonable and places like Meena Bazar and Gold Souk are at walking distance. Five days is max that one can spend as a first timer. We did not read/ research about the places and were quite clueless. Little research from open source/ travel blogs etc about the place is recommended. We paid 260 dirhams (Rs 5200) for our lunch at Ferrari World on recommenadtion of the guide, which was almost 4 times the normal cost. Ferrari world can be avoided as also Dhow cruise. {Better are the 2 hour cruises at Goa and theme park Imagica (near Lonavla), in India}. Do not have two events in a day as it does not leave you with any free time. There is a lot to be explored on your own especially the local gift shops.
6.            Meals.       Meals are costly. A lot of Indian food joints are spread all over. A basic research is strongly recommended. A decent non veg meal per person costs around Rs 400. Do not spend more. Buy water from the super market. A 1.5 litre bottle in the super market was 2 Dirham (Rs 40) against the same being sold at 4 Dirham by local shops and 12 Dirham by the hotel. Veg meals are readily available too. One can buy snacks etc from the local grocery shop.
7.            Laundry.              Carry adequate clothes (30 Kg check in baggage allowed on most airlines including Emirates). Carry a washing soap too. Laundry at the hotel is too costly. One can ask for an iron with stand from the housekeeping. Its summer most of the time, therefore carry appropriate clothing.
8.            Miscellenaeous.              Carry good camera with additional memory card as all the places offer perfect background for pictures. Plan the souvenirs that you want to buy. Most of the items are made in China only. Gold buying can be a time consuming and tricky business. If you have local friends who can guide you, then only venture into a major purchase. Limit on buying gold is Rs 1 lakh for ladies and Rs 50k for men. All the malls are excellent but one must visit Dubai Mall (included alongwith trip to Burj Khalifa). Do carry a selfie stick.
9.            Final Word.        Overall experience was excellent and memorable.   It’s value for money. Takeaways are cleanliness, traffic discipline and safety aspects. There were no hiccups as our travel agents had provided local helpline numbers too. Abu Dhabi and Desert Safari involve long travel by road, but the vehicles are comfortable. People do not mix up readily therefore if two or more families plan the trip together, you can add to the fun value. The rating is as under :-
Desert safari, Burj Khalifa – Dubai mall, Grand Mosque (Abu Dhabi), Dubai City Tour, Ferrari World, Dhow Cruise.



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Sunday, September 2, 2018

सेक्रेड गेम्स : सॅटॅलाइट टेलीविज़न को इन्टरनेट कि चुनौती


नेटफ्लिक्स पर सेक्रेड गेम्स और भी जाने क्या क्या
टाटा स्काई इत्यादि का अंत?

कुछ समय पहले टीवी पर एक सीरियल आया था ‘24’, जिस में अनिल कपूर ने मुख्य भूमिका निभाई थी. बहुत ही तेज़ गति थी, रोमांच था, रहस्य था और हर कड़ी एक बॉलीवुड की ब्लाक बस्टर सरीखी मनोरंजन से भरपूर थी. मगर ‘24’ शायद समय से पहले आ गया और भारतीय दर्शक ऐसे तेज़ तर्रार सीरियल के लिए तैयार नहीं थे. एक सप्ताह की प्रतीक्षा बड़ी लगती थी उस वक़्त. कपिल शर्मा की कॉमेडी नाइट्स और तारक मेहता का उल्टा चश्मा (जो शायद अब तक चल रहा है), बिग बॉस और सैकड़ों की संख्या में पारिवारिक कार्यक्रमों और रिएलिटी शोज़ ने हमारे दिलो दिमाग को बंदी बना रखा था. कई वर्ष पहले से अगर किसी भी फिल्म या देशी मनोरंजन चैनल को देख लें तो घुमा फिरा के वही सब परोसा जाता रहा है और आज भी वही दिया जा रहा है. पर ‘सेक्रेड गेम्स’ और नेटफ्लिक्स  या अमेज़न प्राइम पर मनोरंजन का जो मजमा आज लगा हुआ है वो शायद इस से पहले भारत में कभी नहीं था. किसी भी ‘डिश’ टीवी पर यही आप पूरे चैनल का पैकेज लेते हैं तो महीने में कम से कम 500 से 750 का खर्च उठाना ही पड़ेगा. यही अगर रिकार्डिंग की सुविधा के साथ लेना है तो और पैसे खर्च कीजिये. उस समय अगर बिजली चली जाती है तो फिर कोई उपाय नहीं है. ऐसे में नेटफ्लिक्स और जाने कितने ही ऐसे प्लेटफार्म आ चुके हैं जो मनोरंजन को आपकी सहूलियत के हिसाब से पेश करते हैं, लगभग उसी खर्च में. देखने के लिए टीवी के सामने बैठने की आवश्यकता भी नहीं है. टेबलेट, फ़ोन, लैपटॉप और टीवी किसी पर भी देख सकते हैं, जितने भागों में बाँट कर आप देखना चाहें, वैसे. सेंसर नहीं है, आप चुन सकते हैं क्या देखना है. कोई विज्ञापन नहीं है और न ही एक दिन या एक सप्ताह की लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ती है ये जानने के लिए कि ह्त्या किसने की या चोर कौन था या फिर आगे क्या होगा. विक्रम चंद्रा की इसी नाम की पुस्तक (जो ज़्यादातर लोगों ने नहीं पढ़ी होगी) पर आधारित है ‘सेक्रेड गेम्स’. बिना सेंसर के क्या क्या परोसा जा सकता है ये इस सीरियल को देखने से पता चलता है. धारावाहिक क्या है खुद आप देख सकते हैं. कथानक तेज़ है, हिंसा, सेक्स और सभी गलत चीज़ें बहुतायत में हैं, भाषा में गालियाँ अधिक हैं पर फिर भी कुछ है जो आपको बाँधे रखता है. कलाकारों ने मेहनत की है, और निर्देशकों ने कहानी के सिरों को कैसे कस कर पकड़ा है, ये ऐसे सभी प्लेटफॉर्म्स के सभी धारावाहिकों पर लागू है.
जी हाँ, टीवी पर परोसे जा रहे फूहड़ और बेतुके कार्यक्रमों से इन्टरनेट के ये नए धरातल बहुत आगे हैं और सम्पूर्ण मनोरंजन पर आधारित हैं. विदेशी सीरियलों के समकक्ष अगर हमारे अपने निर्देशकों को खड़ा होना है तो वाकई दम लगाना होगा. एकता कपूर की पीढ़ी के लिए ये चेतावनी नहीं है बल्कि अंत की दस्तक है. अब सिर्फ नेटफ्लिक्स के लिए ही विशेष तौर पर धारावाहिक और फ़िल्में बन रही हैं और वो दिन भी दूर नहीं जब कि 500 रुपये की टिकट और 750 रुपये के पॉप कॉर्न बेचने वाले नए सिनेमाघर भी बंद होने के कगार पर होंगे. पैसा आपका है और यकीनन ये आपका हक़ है कि उस पैसे का पूरा मूल्य आपको मिले. आने वाला कल बहुत बड़े बड़े दिग्गजों को चुनौती देने वाला है. बदलिए या मिट जाइए, ‘सेक्रेड गेम्स’ की इस नयी फसल का यही सन्देश है मनोरंजन की दुनिया के लिए.

Rank restructuring in the Army, ब्रिगेडियर का जाना तय


सेना में आने वाले बदलाव : देखें ऊँट किस करवट बैठता है

सेना के पदों में लगभग डेढ़ दशक पहले बदलाव हुए थे जब कि बग्गा कमीशन या ए वी सिंह कमेटी के सुझावों के तहत सेकंड लेफ्टिनेंट का पद समाप्त कर दिया गया और लेफ्टिनेंट कर्नल तक के पद को ‘टाइम स्केल’ कर दिया गया. सेना के बदलते ढांचे और कार्यप्रणाली को देखते हुए समय समय पर ऐसे बदलावों की आवश्यकता होती है. अब 35 वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद सेना अधिकारियों के पदों में बड़े बदलाव करने जा रही है और सेनाध्यक्ष ने इस वर्ष नवम्बर तक इस बारे में रिपोर्ट माँगी है. सेना में पदोन्नति एक जटिल प्रक्रिया है और हर पद पर अधिकारियों की संख्या निश्चित है. 70 के दशक में बीच में कहीं फाइटिंग आर्म्स और सर्विसेज को अलग करके अधिकारियों और उनके पदोन्नति से जुड़े मामलों में एक दरार आ चुकी है. इस के साथ ही वरिष्ठ अधिकारियों को कमांड और स्टाफ दो धाराओं में विभाजित करके कई सक्षम व्यक्तियों को को डिवीज़न, कोर और सेना की कमान का मौक़ा नहीं मिलता. ये फैसला ला कितना तर्कसंगत था, वादविवाद का विषय रहा है और अब भी है. इसके साथ ही अगर सिविल सर्विसेज को देखा जाये तो हर वेतन आयोग में उन्होंने सभी सेनाओं की उपेक्षा करते हुए पद क्रम में अपने अधिकारियों को बहुत आगे कर दिया है. एक आईएस अधिकारी 18 वर्ष की सेवा में संयुक्त सचिव (जॉइंट सेक्रेटरी) बन जाता है जो कि वेतनमान के हिसाब से मेजर जनरल (औसतन 28 वर्ष की सेवा के बाद चुनिन्दा अधिकारी ही इस पद को पा सकते हैं) के समकक्ष है. सेना में अफसरों के लिए नौ पद हैं जब कि सिविल सर्विसेज में केवल छह और चूंकि सिविल सेवा के अधिकारी ग्रुप A सेवाओं में आते हैं, सभी कम से कम जॉइंट सेक्रेटरी या समकक्ष पदों से सेवानिवृत्त होते है जब कि अधिकतर सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल या समकक्ष पद से. काम के हिसाब से सेना और एनी सेवाओं की कोई तुलना नहीं है और ऐसी बात से सेना के पदों की गरिमा ही कम होती है. पर ये तुलना सभी जगह होती है खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ दोनों सेवाओं के अधिकारी एक साथ काम कर रहे हैं. इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव रक्षा मंत्रालय में देखा जा सकता है. पुलिस और अन्य विभागों में चूंकि NFU लागू है, ‘अतिरिक्त’ प्रत्यय लगाकर हर पद पर बिना कार्यभार के पदोन्नति आम बात है. किसी राज्य में जहाँ एक महानिदेशक (डायरेक्टर जनरल) होना चाहिए 10 से 15 अतिरिक्त महानिदेशक होना आश्चर्य की बात नहीं है. पर सेना में पदोन्नति के लिए हर स्तर पर रिक्तियां  नियत हैं. वेकेंसी न होने पर काबिल से काबिल अधिकारी को भी पदोन्नत नहीं किया जा सकता. आम तौर पर हर पद पर लगभग 40% अधिकारियों कि छंटनी हो जाती है. ऐसे में मध्यम स्तर पर जहाँ अधिकारियों की बहुतायत है वहीं जूनियर और फील्ड में काम करने वाले पदों पर अधिकारियों की कमी है. इस से जूनियर पदों पर काम का बोझ बढ़ जता है और वहीं मध्यम पदों पर पदोन्नति के पर्याप्त अवसर न होने के कारन असंतोष. एक मुद्दा यह भी है कि बाकी सभी सेवाओं में रिटायरमेंट की आयु सीमा 60 वर्ष है, वहीं सेनाओं में पद के हिसाब से 99% से भी ज्यादा अधिकारी 54 से 58 की आयु में सेवा निवृत्त हो जाते हैं. बहुत कोशिश के बाद भी न तो सेना और न ही सरकार ऐसे अधिकारियों को एक अच्छा दूसरा/वैकल्पिक कैरियर देने में सफल रहे हैं. आवश्यकता है कि बाकी सेवाओं की ही तरह सेनाओं में भी सपोर्ट कैडर शामिल किया जाये और शार्ट सर्विस कमीशन को प्राथमिकता दी जाये. 5 और 10 वर्ष के कार्यकाल के बाद इन अधिकारियों को अन्य सरकारी/ अर्द्धसरकारी विभागों में शामिल किया जा सकता है. इस से न केवल सेना में प्रचुर मात्रा में अधिकारी मिल सकेंगे बल्कि पदोन्नति न मिलने से पैदा होने वाली विसंगति को भी ठीक किया जा सकेगा. साथ ही पूरा सरकारी तंत्र भी अच्छे अधिकारियों के आने से लाभान्वित होगा. सेना के बजट का एक बड़ा भाग बजट वेतन (2018-19 वित्त वर्ष में 80,945 करोड़ रुपए) और पेंशन (98,989 करोड़ रूपए) में जाता है, ज्ञातव्य रहे कि इसका भी एक मोटा हिस्सा रक्षा मंत्रालय के असैनिक कर्मचारी के लिए है जो कि न केवल पूरे 60 वर्ष की सेवा के बाद यानि अधिकतम वेतन (अधिकतम पेंशन) पर रिटायर होते हैं बल्कि बाकी सेवाओं की तरह एक रैंक एक एक पेंशन (OROP) और NFU के तहत पदोन्नति के भी हकदार होते हैं. मीडिया रिपोर्ट देखें तो लगेगा कि रक्षा बजट का हिस्सा सिर्फ सैनिकों और अधिकारियों के वेतन और पेंशन पर खर्च होता है, पर वास्तविक स्थिति कुछ और है.
एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा ये भी है कि सेना ने कई और विभागों जैसे कि DGQA, ऑर्डनेन्स फैक्ट्रीज, MES इत्यादि को भी अधिकारी दिए हुए हैं, जो कि सेना में अधिकारियों की संख्या बढ़ाते हैं और आंकड़ों को गलत दिशा में ले जाते हैं. समय है कि सेना इन सब विभागों से नाता तोड़े और केवल युद्ध से सीधे संबंधित विभागों को ही प्राथमिकता दे. इसी तरह सेना में सेवा वर्ग (सर्विसेस) के कई विभागों में जैसे चिकित्सा, EME, ENGINEERS, RVC, ASC, ऑर्डनेन्स कोर की कार्यप्रणाली में बदलाव ला कर दूसरी(असैनिक) एजेंसियों को शामिल किया जा सकता है. 
ये कहना गलत नहीं होगा कि आतंरिक नीतियों की वजह से सेना में अधिकारी पदों में बदलाव न होने के कारण एक बड़ा वर्ग पदोन्नति न पाकर असंतुष्ट है. कई विभागों को छोटा कर के और उनकी कार्यप्रणाली में बदलाव और सुधार ला कर स्थिति में परिवर्तन लाया जा सकता है. साथ ही अधिकारियों के कार्यकाल और भर्ती की प्रक्रिया में शार्ट सर्विस कमीशन को प्राथमिकता दे कर और मौजूदा अधिकारी पदों में कमी करके, जिसमें ब्रिगेडियर के पद को हटाने का अनुमोदन शामिल है, सेना वर्ष के अंत तक बड़े परिवर्तन लाने जा रही है. इस से जुड़े और कई मुद्दे हैं जिन पर चर्चा चल रही है. मीडियावाला की टीम अपने पाठकों को इस मुद्दे के सभी पहलुओं की विस्तृत जानकारी देगी. 

डार्विन जस्टिस : पाठक प्रतिक्रिया ... एक अद्भुत उपन्यास


डार्विन जस्टिस : बिहार, नक्सल और प्रेम कहानी
अनय और चश्मिश कौन थे? मंडल कमीशन रिपोर्ट और उसके बाद में होने वाले उपद्रवों ने कैसे उनकी छह साल से भी ज्यादा चली प्रेम कहानी का इतना भयावह अंत किया ? “भूराबाल साफ़ करो” जातीय संघर्ष में आने वाला कैसा नारा था ? क्या कभी कार्ल मार्क्स या लेनिन ने ऐसे नारे की परिकल्पना की थी? बिहार में नक्सल, भूमिहीन बाभनों के छोटे खेतों में लाल झंडा गाड़ कर, क्या साबित करना चाहते थे? कहानी को कहने वाले का नाम क्या था और क्या मिक्की और मोनालिसा ने सोचा था कि चश्मिश और अनय की निर्मम हत्याओं में उनका भी एक बड़ा हाथ होगा?
डार्विन जस्टिस न सिर्फ इन सवालों के सटीक जवाब हमारे समक्ष रखती है बल्कि 1990 से ले कर आज तक चल रही राजनीतिक हलचल का एक बेबाक विश्लेषण भी करती है. एक प्रेम कहानी के इर्द गिर्द वर्तमान का इतना सच्चा खाका बुनना पुस्तक को एक बहुत ऊंचे दर्जे पर ले जाता है. भाषा में कसाव है, कहानी के पात्रों पर लेखक की मज़बूत पकड़ है और पठनीयता ऐसी कि आप अंत को जानते समझते हुए भी पन्ने पलटने से खुद को रोक नहीं सकते. दुनिया भर के समाजों में चल रही विषमताओं और विसंगतियों पर डार्विन जस्टिस तीखा प्रहार करती है. बिना किसी छल कपट के और बिना अपने विचार पाठक पर लादे, ये कहानी आपको २८ वर्ष पीछे ले जाकर घटनाओं को एक नए सिरे से सोचने पर विवश करती है. बोफोर्स घोटाले, मंडल कमीशन रिपोर्ट, बाबरी मस्जिद का गिराया जाना और उसका बिहार के प्रान्तों के जातीय ढाँचे पर पड़ने वाले असर और उस से उत्पन्न होने वाले हिंसक आन्दोलन का गंभीर वर्णन है. बात ही बात में लेखक आपको लगभग हर मुद्दे की तह तक ले जाता है पर आप पर निर्णय नहीं थोपता. भारतीय राजनीतिक गिरावट का पुस्तक एक स्पष्ट और अचूक मूल्यांकन है. भाषा सरल और पात्रों का चुनाव इतना इमानदार है कि आप बाभन चमन सिंह से भी सहमत होते हैं और नक्सल नेता मेघन से भी. बूढ़ी पोपली तम्बोलन सारा समय अनय को मुफ्त पान खिलाती है, मोनालिसा छुपाकर उसके और चश्मिश के बीच डाकिये का काम करती है और फिर भी ये दोनों अनय और चश्मिश के भीषण हत्याकांड की न सिर्फ गवाह बनती हैं बल्कि उसमें बराबर की भागीदारी भी रखती हैं.
कहानी में प्रेम मुख्य विषय न हो कर सामाजिक विषमताओं से उपजा राजनैतिक हिंसक आन्दोलन मुख्य विषय है. लेखक ने हर कोण से विषयवस्तु को तराशा है और पढ़ते वक़्त उस देश काल में आप खुद ब खुद पहुँच जाते हैं. डार्विन जस्टिस एक दुखांत लेकिन सच्ची कहानी है. लेखक ने न समय बदला है, न घटनाएं और न ही उनको अंजाम देने वाले पात्रों को. लालू यादव, वी पी सिंह, राजीव गाँधी इत्यादि नाम पुस्तक में उतनी ही सहजता से आते हैं जितना कि मेघन, मोनालिसा वगैरह. इतिहास न होते हुए भी इतिहास होना और कहानी न होते हुए भी ऐसा प्रवाह रख पाना साहित्य में शायद पहला प्रयोग है. लाल सलाम में लाल समाज के खून का रंग है. प्रवीण कुमार की लेखनी में गाँव की मिट्टी की सच्चाई के साथ साथ जिए हुए युग की हर कड़वाहट बराबर मात्रा में मौजूद है. पढ़िए डार्विन जस्टिस और खोजिये उन समस्याओं के हल जो बहुत तेज़ी से हमें लील रही हैं. मात्र 160 रूपए में ये पुस्तक वाकई एक विस्फोटक दस्तावेज है.

Friday, August 3, 2018

Kashmir Problem : Reality Check


औरंगजेब और शुजात बुखारी की ह्त्या : कश्मीर में गलत नीतियों का परिणाम

ईद से एक दिन पहले राष्ट्रीय राइफल्स के जवान औरंगजेब की आतंकियों ने पुलवामा में अपहरण कर के निर्ममता से ह्त्या कर दी. ध्यान देने वाली बात है कि सिर्फ २०१८ में ही १९ बड़े आतंकियों को औरंगजेब की बटालियन ने मार गिराया है जिस में हिजबुल मुजाहिदीन का लीडर समीर बट शामिल था. औरंगजेब का पूरा परिवार ही सेना से जुदा हुआ है. उसके पिता एक सेवानिवृत्त सैनिक हैं, चाचा ने आतंकियों से लड़ते हुए शहादत पायी और उनका भाई भी सेना में ही है. साथ ही नियंत्रण रेखा पर युद्ध विराम उल्लंघन में चार बीएसएफ के जवान शहीद हो गए. राइजिंग कश्मीर के बड़े पत्रकार शुजात बुखारी और उनके सहयोगी की दिन दहाड़े हत्या पूरे तंत्र के मुंह पर तमाचे से कम नहीं है. इस घटना को पूरी समस्या और हमारी नीतियों के सन्दर्भ में देखा जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर ये हमारी हार है. राजनीतिक दलों को  को और पाँच जवान संख्या में कम लगते हैं पर अपने  परिवारों के लिए वो पूरी दुनिया के बराबर हैं.
ये पहली बार नहीं है जब कि आतंकवादियों ने ऐसा किया है. पिछले साल, लेफ्टिनेंट उमर फैयाज़ को भी एक शादी के मौके से अपहृत कर के अमानवीय तरीके से उनकी ह्त्या की गयी थी. पुलिस और सेना के जवानों पर सोचे समझे हमले आतंकियों की नयी नीति है ताकि लोगों में डर फ़ैल जाए और सेनाओं का मनोबल टूटे. ये सुरक्षा बलों की असहायता को उजागर करने का सफल तरीका है.जम्मू  कश्मीर से हजारों की संख्या में जवान सेनाओं में और अन्य सुरक्षा बलों में कार्यरत हैं और उनका इस लड़ाई में योगदान महत्वपूर्ण है. पर आतंकियों का सूचना तंत्र गाँवों और यहाँ तक कि पुलिस बल के भीतर तक पहुंचा हुआ है. आम कश्मीरी जो कि आतंकियों के जनाजों में हजारों की तादाद  में शामिल हो कर आपना गुस्सा दिखता है, अपने ही भाई एक सिपाही के मरने पर चूं भी नहीं करता. न ही अलगाववादी नेता, न ही कश्मीर के राजनेता ऐसी हत्याओं की निंदा करते हैं. कारण ये है कि वो डरपोक हैं. मरने से डरते हैं, आतंकी उनके साथ जो व्यवहार करें मंज़ूर है और इस तरह से बन्दूक के डर से ये व्यापार चल रहा है. दूसरी ओर सेनाएँ युद्ध के नियमों से बंधी हैं, उन्हें मानवाधिकार का पाठ घुट्टी में घोल कर पिलाया गया है और ज़रा सी चूक होते ही हाय तौबा मच जाती है. यहाँ तक कि महबूबा मुफ़्ती जवानों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही का आदेश देने से पहले एक बार भी नहीं सोचतीं.
बहादुर सिपाही औरंगजेब की ह्त्या एक बड़ा सवाल है आतंकियों से हमारी इस लड़ाई के तरीके पर. इस समय मानवाधिकार संस्थाएं, देश की बड़ी हस्तियाँ और पूरे विश्व में कश्मीर पर बोलने वाले विचारक सब चुप हैं. औरंगजेब सेना में आते ही अपना कश्मीरी होने का हक़ खो जो बैठा था. शुजात बुखारी जो कि जाने माने पत्रकार हैं उन्हें दिन दहाड़े मार दिया गया और इस हत्या को सुरक्षा एजेंसियों पर मढ़ दिया गया है. कश्मीर और देश का बाकी मीडिया इसकी निंदा नहीं करेगा जब तक कि ये घटना उन्हीं के साथ नहीं हो जाती.  इस तरह ह्त्या को भी आतंकी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. कारण है कि कश्मीर घाटी की जनता जो दिन रात आज़ादी के नारे लगाती है वास्तव में आतंकियों की गुलाम है. इसे वो स्वीकारेंगे नहीं पर ऐसी हत्याएँ इस गुलामी को और मज़बूत करती हैं. इस लड़ाई को और नज़दीक से देखने समझने और फिर नीति परिवर्तान की सख्त आवश्यकता है.
शत्रु का साथ देना देशद्रोह है और हर वो व्यक्ति जो इस बात का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करता है द्रोही है. उसके साथ भाईबंदी करना  या माफ़ी देना देश की सुरक्षा पर सीधा प्रहार है. आतंकियों और उनके समर्थकों को आर्थिक और नैतिक समर्थन देने वाली जनता इस विद्रोह का हिस्सा है, उन्हें कई दशकों से पुचकारे जाने की आदत हो चुकी है, हर सुविधा कश्मीर में जम्मू और अन्य क्षेत्रों के मुकाबले आधे से भी कम दाम पर उपलब्ध है, इसे रोका जाना चाहिए. इस व्यवस्था की कमर तोड़ने के लिए राजनीतिक इच्छा की ज़रुरत है. सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए सैनिकों को इस प्रकार बलि का बकरा बनाना गलत है. शुजात बुखारी सरकार के विरुद्ध लिखते थे और ऐसे में उनकी हत्या को सुरक्षा बलों के सर डालना आसान है. सुरक्षा बल ऐसे काम नहीं करते. हत्याएं हमारी नीति का हिस्सा नहीं हैं. हम मीडिया में ऐसी बातों का प्रतिकार नहीं करते वो एक नीतिगत निर्णय है जो कि बदला जाना चाहिए. क्यूंकि सैनिकों को मीडिया में बोलने का अधिकार नहीं है आतंकी और उनके समर्थक बुद्धिजीवी इस बात का गलत फायदा उठाते रहे हैं. सेनाओं को चाहिए कि इस बात का हर स्तर पर मुकाबला करें. रक्षा मंत्रालय को अपनी मीडिया नीति बदलनी होगी और  अपने सैनिकों को कमज़ोर और निर्बल साबित करते कानूनों में ज़रूरी बदलाव करने होंगे नहीं तो औरंगजेब और उमर फैयाज़  जैसे बहादुरों की कुर्बानी व्यर्थ जायेगी.

what is Nagalim?


नागालिम : आसान नहीं है समस्या का हल

हाल ही में श्री आर एन रवि ने, जो कि नागालैंड के लिए सरकार के वार्ताकार हैं, 2015 में प्रधानमंत्री की उपस्थिति में नागा नेताओं के साथ हुए समझौते (Framework Agreement) के कुछ पहलुओं पर रोशनी डाली. रवि ने किसी भी प्रदेश की सीमाओं में परिवर्तन की संभावना से इनकार किया है. समझौते में भारतीय महासंघ के भीतर ही नागाओं को विशिष्ट दर्जा देनी की बात स्वीकार की गयी है. समझौते के बाकी मुख्य बिंदु गोपनीय रखे गए हैं क्यूंकि उन से बाकी राज्यों पर सीधा असर पड़ता है. इस प्रकरण में नागालिम नाम बार बार उभरता है पर इसके बारे में आम नागरिकों को अधिक जानकारी नहीं है. आइये देखें क्या है नागालिम.
उत्तर पूर्व में चल रहा संघर्ष दुनिया में सबसे लम्बे चलने वाले संघर्षों में से है और हमारी सेनाएँ पिछले सात दशकों से इनसे मुकाबला कर रही हैं. ज्यादातर मुद्दे राजनीतिक हैं पर लम्बी उपेक्षा और बाहरी शक्तियों की मिलीभगत से मामला उलझ गया और जातीय राजनीतिक विरोध ने हथियारबंद संघर्ष का रूप ले लिया. एनएससीएन (नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड) इस संघर्ष में सबसे बड़ा और सबसे हिंसक दल था. सेनाओं की कार्रवाही और दल में कई विभाजनों के बाद 1997 से एनएससीएन( इसाक मुइवाह) के साथ युद्धविराम की स्थिति है. पर युद्धविराम ने दल की पूरी गतिविधियों पर रोक नहीं लगायी है और अपहरण, हत्याएँ और टैक्स वसूली जैसे कामों में हथियारबंद नागा और उनके सहयोगी लगे हुए हैं. पूरे उत्तर पूर्व को ही देश की मुख्यधारा में शामिल होने में काफी समय लग गया और  1962 में चीन के साथ हुए युद्ध ने देश का ध्यान उस और खींचा. इतना होने पर भी पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में कुछ काम हुआ है नहीं तो समूचा देश समस्या से अनभिज्ञ ही रहा है. मूलतः समस्या पहचान की है. नागा कोई एक जाति नहीं है बल्कि बीसेक छोटी बड़ी जनसंख्या वाली अलग अलग आदिवासी प्रजातियों का सामूहिक नाम है. आज़ादी के समय और उसके पहले भी देश के मुख्य भाग से दूर होने के कारण और विशिष्ट भौगोलिक और सामाजिक परिस्थियों के कारण नागा बाहुल्य वाले क्षेत्र अपने लिए अलग हिस्से की मांग करते रहे हैं और 1 दिसंबर 1963 को बृहत् असम के विभाजन के बाद नागालैंड का जन्म हुआ. ज्ञातव्य है कि संविधान की               धारा 371 A के अंतर्गत नागालैंड को विशिष्ट दर्जा प्राप्त है. पर नागा नेताओं का कहना है कि नागालैंड के अलावा भी असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और यहाँ तक कि म्यांमार (बर्मा) में भी जिन इलाकों में नागा बहुतायत में हैं उन्हें नागालैंड में शामिल करके नागालिम या बृहत् नागालैंड या ग्रेटर नागालैंड का निर्माण किया जाये. अलग देश की माँग से उतर कर नागालिम की बात करना नागा समस्या का आंशिक हल था. पर समय समय पर सरकार से अपनी नयी माँगें मनवाने के लिए नागालिम का दांव खेला जाता है. नागाओं से बातचीत और किसी भी प्रकार के समझौते का सर्वाधिक असर मणिपुर पर पड़ता है जिसके उत्तरी तीन जिलों में अलग अलग नागा प्रजातियाँ बाहुल्य में हैं. दूसरी बात ये भी कि मणिपुर पहुँचने के लिए मुख्य राजमार्ग (राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 2) नागालैंड से हो कर गुज़रता है और रेलवे लाइन भी दीमापुर तक ही है. ऐसे में नागा उपद्रवी मणिपुर आने जाने वाले रास्तों को बंद करके अपनी माँगें मनवाते रहे हैं. सरकार का कहना है कि नागों के साथ युद्धविराम सिर्फ नागालैंड में ही मानी है जबकि उनके हथियाrबंद आतंकवादी अन्य सीमावर्ती राज्यों में भी हैं. मणिपुर के सक्रिय आतंकवादी गुट और राजनीतिक दल नहीं चाहते कि नागालैंड उनकी भूमि पर अधिकार जताए. उनकी माँग है कि सेनाएँ मणिपुर में सक्रिय नागा आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाही करे. मणिपुर की जनता इन सब बातों को देखते हुए बार बार नागा समझौते का विरोध करती है. उनकी मांग है कि फ्रेमवर्क अग्रीमेंट के मुख्य बिंदु सार्वजानिक किये जाएँ. सरकार अब भी इस पर चुप्पी साधे हुए है क्यूंकि ये समस्या जटिल है और सभी पक्षों की सहमति होना लगभग असंभव है.

KARGIL VIJAY DIWAS


कारगिल विजय दिवस
युद्ध से सीखे गए ज़रूरी सबक, ‘ ये दिल वाकई माँगे मोर  

16 दिसंबर 1971 को पूर्वी पकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पाकिस्तानी सेना ने 12 दिन की भीषण लड़ाई के बाद हथियार डाल दिए. दुनिया भर में युद्ध के इतिहास में ये सबसे तेज़ युद्ध था और ऐसा पहला युद्ध था जिस के परिणाम स्वरुप एक नए देश का जन्म हुआ. 16 दिसंबर को विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है. 1989 से ले कर आज तक जम्मू कश्मीर में भारत और पाकिस्तान के बीच एक छद्म युद्ध अनवरत रूप से चल रहा है पर 1971 में हुई अपनी शर्मनाक हार का बदला लें के मौके पकिस्तान हमेशा ढूँढता रहा है. 1999 में फरवरी के महीने से ही कारगिल सेक्टर में पाकिस्तान ने सर्दी के मौसम में खाली की जाने वाली चौकियों पर घुसपैठ कर के अपने सैनिक तैनात कर दिए. इसे दुश्मन ने ऑपरेशन बद्र का नाम दिया. लगभग 200 वर्ग किलोमीटर के इलाके में हुई घुसपैठ पूरी तैयारी के साथ की गयी थी और बड़े हथियार, राशन पानी और युद्ध सामग्री महीनों की तैयारी के बाद ऊपर पहुंचाई गयी थी. कितनी चौकियों पर दुश्मन का कब्ज़ा हो चुका था ये अनुमान लगाने में हमारी चूक हुई. 03 जुलाई 1972 को हुए शिमला समझौते के अंतर्गत युद्ध भारत और पकिस्तान के बीच विराम रेखा को नियंत्रण रेखा बना दिया गया था. दोनों देशों के बीच 740 किलोमीटर लंबा ये हिस्सा दुनिया में किन्ही भी दो देशों के बीच का सबसे गहन सैनिक जमाव वाला भाग है. चूंकि नियंत्रण रेखा की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता नहीं है इसलिए इसमें घुसपैठ करना आम बात है. कश्मीर सेक्टर में में नियंत्रण रेखा के दोनों और गतिविधियाँ बहुत तेज़ हैं और जम्मू सेक्टर में भी आये दिन फायरिंग होती रहती है पर लद्दाख क्षेत्र में नियंत्रण रेखा पर हलचल कम है. इलाका भी दुर्गम है और जनसंख्या भी न के बराबर है और आतंकवाद का असर भी नहीं है. इस कारण सैन्य दृष्टि से इस इलाके का महत्त्व कम आंकना भी एक बड़ी गलती थी. श्रीनगर से लेह को जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 1D इस क्षेत्र में सीमा के बहुत नज़दीक से गुज़रता है और साथ लगी ऊँची पहाड़ियों पर यदि दुश्मन बैठ जाए तो लद्दाख का संपर्क कट सकता है, और हुआ भी यही. जब उन चौकियों से फायरिंग हुई तब हमें स्थिति की गंभीरता का पता चला. न केवल कब्ज़े वाला हिस्सा बल्कि पहाड़ी पर बैठ कर एक बड़े हिस्से को काट देने की क्षमता शत्रु के पास चली गयी. पाकिस्तान ने कोशिश की कि इस अभियान को कश्मीर का आतंरिक मामला कह के दबा दिया जाए. पर ऐसा हुआ नहीं. 03 मई को पाकिस्तानी घुसपैठ की खबर मिलते ही पता लगाने के लिए भेजे गए टोही दल के पाँच सैनिकों की बंदी बना कर ह्त्या कर दी गयी. 09 मई को पाकिस्तानी गोलाबारी में कारगिल स्थित हमारा बारूद भण्डार नष्ट हो गया और 10 मई तक द्रास, मश्कोह और काकसर सब-सेक्टरों में भी भारी घुसपैठ की रिपोर्ट आई. स्थिति को समझने में काफी वक़्त लगा और आने वाले पंद्रह दिनों में हमारी सेनायें युद्ध के लिए तैयार हो कर  कारगिल के लिए रवाना हो गयीं. 26 मई को भारतीय वायु सेना के हमले के साथ भारत पाकिस्तान के बीच चौथा युद्ध शुरू हो गया. पकिस्तान को इतनी भीषण जवाबी कार्रवाही का अंदाजा नहीं था. हाई एलटीट्यूड (अत्यधिक ऊंचा इलाका) लड़ाई आम इलाकों में लडे जाने वाले युद्धों से हर मायने में अलग है और मुश्किल भी. पर हमारे सैनिकों ने किसी भी चीज़ की परवाह न करते हुए अगले डेढ़ महीने में दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए. सूत्रों के अनुसार एक हज़ार से भी अधिक पाकिस्तानी सैनिक मारे गए और इस से कम से कम दो गुना घायल हुए. मारे गए सैनिकों से मिले दस्तावजों से कारगिल की घुसपैठ और लड़ाई में पाकिस्तानी सेना का सीधा हाथ सामने आया. मीडिया ने इस युद्ध को जिस तरह से पेश किया उस से न केवल पाकिस्तान का सच दुनिया के सामने आया बल्कि अपना पूरा देश इस अभियान के समर्थन में एक हो गया. अमरीका और यूरोप के प्रभावशाली देशों ने पाकिस्तान पर राजनैतिक दबाव बनाया और 26 जुलाई को पाकिस्तानी सेना ने कब्जे वाला पूरा हिस्सा खाली कर दिया. वास्तव में ये एक बड़ी जीत थी पर इस युद्ध से हमारे लिए भी सबक कम नहीं थे. सेना की कार्यप्रणाली में बड़े बदलाव आये. नए हथियार और उपकरण खरीदे गए. ट्रेनिंग के तौर तरीके सुधारे गए और वायु सेना का असर पता चला. विवादित बोफोर्स तोपों ने युद्ध में अपनी क्षमता से लोहा मनवाया और भारतीय पैदल सैनिक और उनकी बहादुरी पूरे देश के दिलो दिमाग पर छा गए. हमारे नौजवान अधिकारियों ने विपरीत परिस्थितियों में जिस बहादुरी और देश प्रेम का परिचय दिया वो पूरे देश के नौजवानों के लिए आज भी मिसाल है. हम ने 527 सैनिकों को खोया और 1363 घायल हुए. वहीँ पाकिस्तान का भारी नुकसान हुआ. आधिकारिक तौर पर 700 के मारे जाने की पुष्टि कर पाकिस्तान ने युद्ध में मिली हार को कम आंकने की कोशिश की पर  बाद में उनके प्रधानमंत्री मियाँ नवाज़ शरीफ ने खुद 4000 सैनिकों के मारे जाने की बात स्वीकारी. परमाणु बम के इस्तेमाल करने की पाकिस्तान की धमकी नाकाम रही और अपने ही सैनिकों के शवों को स्वीकार न कर के पाकिस्तानी सेना की साख अपने ही लोगों में गिर गयी. पाकिस्तानियों द्वारा हमारे अधिकारियों और सैनिकों की निर्मम ह्त्या को मीडिया ने ही दुनिया के सामने रखा और मानवाधिकार एजेंसियों के लिए इस युद्ध में पाकिस्तान का सच्चा चेहरा उजागर हुआ. हमारे रक्षा तंत्र को मीडिया की ताकत का पता चला और साथ ही युद्ध में राजनैतिक और आर्थिक दबाव का महत्त्व समझ आया. युद्ध की तैयारी में सूचना तंत्र के महत्त्व के साथ  और हमारी सूचना एजेंसियों में आपसी समन्वय की कमी पता चली. युद्ध के बाद सुब्रमन्यम कमेटी की रिपोर्ट ने कई कड़वे सच देश के सामने रखे. सेनाओं ने काफी हद तक इन सबकों पर अमल कर लिया है पर रक्षा मंत्रालय के तहत होने वाले आधुनिकीकरण के क्षेत्र में बहुत काम बाकी है. रक्षा सौदों और नए हथियारों और उपकरणों की खरीद फरोख्त की प्रक्रिया अभी भी बहुत जटिल है और नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के चलते देश की सुरक्षा  व्यवस्था में नीतिगत कमियों को दूर किया जाना बाकी है. साथ ही सेना के तीनों अंगों में एकीकरण अभी तक नहीं हुआ है और सीडीएस जैसा अहम पद ब्यूरोक्रेसी में फंसा है. रक्षा और विदेश नीति में सेना के बड़े अधिकारियों की भूमिका अब भी नगण्य है और कई और मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक है. कारगिल युद्ध ने हमारी आँखें खोलीं और न केवल हमारी बहादुरी बल्कि हमारी कमजोरियों से भी हमें रूबरू करवाया. वक्त है इन पर ध्यान देने का. 

RANK RESTRUCTURING IN THE ARMED FORCES


सेना में आने वाले बदलाव : देखें ऊँट किस करवट बैठता है

सेना के पदों में लगभग डेढ़ दशक पहले बदलाव हुए थे जब कि बग्गा कमीशन या ए वी सिंह कमेटी के सुझावों के तहत सेकंड लेफ्टिनेंट का पद समाप्त कर दिया गया और लेफ्टिनेंट कर्नल तक के पद को ‘टाइम स्केल’ कर दिया गया. सेना के बदलते ढांचे और कार्यप्रणाली को देखते हुए समय समय पर ऐसे बदलावों की आवश्यकता होती है. अब 35 वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद सेना अधिकारियों के पदों में बड़े बदलाव करने जा रही है और सेनाध्यक्ष ने इस वर्ष नवम्बर तक इस बारे में रिपोर्ट माँगी है. सेना में पदोन्नति एक जटिल प्रक्रिया है और हर पद पर अधिकारियों की संख्या निश्चित है. 70 के दशक में बीच में कहीं फाइटिंग आर्म्स और सर्विसेज को अलग करके अधिकारियों और उनके पदोन्नति से जुड़े मामलों में एक दरार आ चुकी है. इस के साथ ही वरिष्ठ अधिकारियों को कमांड और स्टाफ दो धाराओं में विभाजित करके कई सक्षम व्यक्तियों को को डिवीज़न, कोर और सेना की कमान का मौक़ा नहीं मिलता. ये फैसला ला कितना तर्कसंगत था, वादविवाद का विषय रहा है और अब भी है. इसके साथ ही अगर सिविल सर्विसेज को देखा जाये तो हर वेतन आयोग में उन्होंने सभी सेनाओं की उपेक्षा करते हुए पद क्रम में अपने अधिकारियों को बहुत आगे कर दिया है. एक आईएस अधिकारी 18 वर्ष की सेवा में संयुक्त सचिव (जॉइंट सेक्रेटरी) बन जाता है जो कि वेतनमान के हिसाब से मेजर जनरल (औसतन 28 वर्ष की सेवा के बाद चुनिन्दा अधिकारी ही इस पद को पा सकते हैं) के समकक्ष है. सेना में अफसरों के लिए नौ पद हैं जब कि सिविल सर्विसेज में केवल छह और चूंकि सिविल सेवा के अधिकारी ग्रुप A सेवाओं में आते हैं, सभी कम से कम जॉइंट सेक्रेटरी या समकक्ष पदों से सेवानिवृत्त होते है जब कि अधिकतर सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल या समकक्ष पद से. काम के हिसाब से सेना और एनी सेवाओं की कोई तुलना नहीं है और ऐसी बात से सेना के पदों की गरिमा ही कम होती है. पर ये तुलना सभी जगह होती है खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ दोनों सेवाओं के अधिकारी एक साथ काम कर रहे हैं. इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव रक्षा मंत्रालय में देखा जा सकता है. पुलिस और अन्य विभागों में चूंकि NFU लागू है, ‘अतिरिक्त’ प्रत्यय लगाकर हर पद पर बिना कार्यभार के पदोन्नति आम बात है. किसी राज्य में जहाँ एक महानिदेशक (डायरेक्टर जनरल) होना चाहिए 10 से 15 अतिरिक्त महानिदेशक होना आश्चर्य की बात नहीं है. पर सेना में पदोन्नति के लिए हर स्तर पर रिक्तियां  नियत हैं. वेकेंसी न होने पर काबिल से काबिल अधिकारी को भी पदोन्नत नहीं किया जा सकता. आम तौर पर हर पद पर लगभग 40% अधिकारियों कि छंटनी हो जाती है. ऐसे में मध्यम स्तर पर जहाँ अधिकारियों की बहुतायत है वहीं जूनियर और फील्ड में काम करने वाले पदों पर अधिकारियों की कमी है. इस से जूनियर पदों पर काम का बोझ बढ़ जता है और वहीं मध्यम पदों पर पदोन्नति के पर्याप्त अवसर न होने के कारन असंतोष. एक मुद्दा यह भी है कि बाकी सभी सेवाओं में रिटायरमेंट की आयु सीमा 60 वर्ष है, वहीं सेनाओं में पद के हिसाब से 99% से भी ज्यादा अधिकारी 54 से 58 की आयु में सेवा निवृत्त हो जाते हैं. बहुत कोशिश के बाद भी न तो सेना और न ही सरकार ऐसे अधिकारियों को एक अच्छा दूसरा/वैकल्पिक कैरियर देने में सफल रहे हैं. आवश्यकता है कि बाकी सेवाओं की ही तरह सेनाओं में भी सपोर्ट कैडर शामिल किया जाये और शार्ट सर्विस कमीशन को प्राथमिकता दी जाये. 5 और 10 वर्ष के कार्यकाल के बाद इन अधिकारियों को अन्य सरकारी/ अर्द्धसरकारी विभागों में शामिल किया जा सकता है. इस से न केवल सेना में प्रचुर मात्रा में अधिकारी मिल सकेंगे बल्कि पदोन्नति न मिलने से पैदा होने वाली विसंगति को भी ठीक किया जा सकेगा. साथ ही पूरा सरकारी तंत्र भी अच्छे अधिकारियों के आने से लाभान्वित होगा. सेना के बजट का एक बड़ा भाग बजट वेतन (2018-19 वित्त वर्ष में 80,945 करोड़ रुपए) और पेंशन (98,989 करोड़ रूपए) में जाता है, ज्ञातव्य रहे कि इसका भी एक मोटा हिस्सा रक्षा मंत्रालय के असैनिक कर्मचारी के लिए है जो कि न केवल पूरे 60 वर्ष की सेवा के बाद यानि अधिकतम वेतन (अधिकतम पेंशन) पर रिटायर होते हैं बल्कि बाकी सेवाओं की तरह एक रैंक एक एक पेंशन (OROP) और NFU के तहत पदोन्नति के भी हकदार होते हैं. मीडिया रिपोर्ट देखें तो लगेगा कि रक्षा बजट का हिस्सा सिर्फ सैनिकों और अधिकारियों के वेतन और पेंशन पर खर्च होता है, पर वास्तविक स्थिति कुछ और है.
एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा ये भी है कि सेना ने कई और विभागों जैसे कि DGQA, ऑर्डनेन्स फैक्ट्रीज, MES इत्यादि को भी अधिकारी दिए हुए हैं, जो कि सेना में अधिकारियों की संख्या बढ़ाते हैं और आंकड़ों को गलत दिशा में ले जाते हैं. समय है कि सेना इन सब विभागों से नाता तोड़े और केवल युद्ध से सीधे संबंधित विभागों को ही प्राथमिकता दे. इसी तरह सेना में सेवा वर्ग (सर्विसेस) के कई विभागों में जैसे चिकित्सा, EME, ENGINEERS, RVC, ASC, ऑर्डनेन्स कोर की कार्यप्रणाली में बदलाव ला कर दूसरी(असैनिक) एजेंसियों को शामिल किया जा सकता है. 
ये कहना गलत नहीं होगा कि आतंरिक नीतियों की वजह से सेना में अधिकारी पदों में बदलाव न होने के कारण एक बड़ा वर्ग पदोन्नति न पाकर असंतुष्ट है. कई विभागों को छोटा कर के और उनकी कार्यप्रणाली में बदलाव और सुधार ला कर स्थिति में परिवर्तन लाया जा सकता है. साथ ही अधिकारियों के कार्यकाल और भर्ती की प्रक्रिया में शार्ट सर्विस कमीशन को प्राथमिकता दे कर और मौजूदा अधिकारी पदों में कमी करके, जिसमें ब्रिगेडियर के पद को हटाने का अनुमोदन शामिल है, सेना वर्ष के अंत तक बड़े परिवर्तन लाने जा रही है. इस से जुड़े और कई मुद्दे हैं जिन पर चर्चा चल रही है. मीडियावाला की टीम अपने पाठकों को इस मुद्दे के सभी पहलुओं की विस्तृत जानकारी देगी. 


संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कमीशन आयोग की कश्मीर रिपोर्ट का सत्य
अंतराष्ट्रीय संस्था भी पाकिस्तानी प्रोपेगेंडा का शिकार

हाल ही में कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र  के मानवाधिकार योग की रिपोर्ट चर्चा में थी. इस से पहले कि रिपोर्ट पर बात की जाए, ये जान लेना आवश्यक है कि मानवाधिकार आयोग क्या है और योग के हाई कमिश्नर कौन हैं. मानवाधिकार योग का गठन 1993 में हुआ था और इसका स्थायी कार्यालय जेनेवा में है. इसके हाई कमिश्नर जॉर्डन में जन्मे ज़ैद राद अल हुसैन इस पद को पाने वाले पहले एशियाई और अरब हैं. हुसैन आयोग के सातवें अध्यक्ष हैं.

मानवधिकार आयोग में 47 सदस्य देश हैं. भारत भी 2017 तक इस आयोग का सदस्य राष्ट्र था. यहाँ तक कि अमरीका ने, जिसकी सदस्यता 2019 तक थी, आयोग से अपना नाम वापस ले लिया है और आयोग पर इजराइल के मामले में पक्षपात का आरोप लगाया है.
कश्मीर पर 49 पन्नों की रिपोर्ट पाकिस्तान के सफल प्रचार का नतीजा है और संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी सचिव राजीव के चंदर ने इस रिपोर्ट की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए इसे ख़ारिज कर दिया है. इसके कारणों पर जाएँ और रिपोर्ट को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि कश्मीर में भारतीय सेनाओं के हर काम पर ऊँगली उठाई गयी है और रिपोर्ट में दिए गए आंकड़े तथ्यों पर आधारित न हो कर ‘जम्मू कश्मीर कोएलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटी’ नामक भ्रामक संस्था पर आधारित हैं. रिपोर्ट में आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद हुई हिंसा की सारी ज़िम्मेदारी सुरक्षा बलों पर डाली गयी है. यहाँ तक कि आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन को भी सिर्फ  सशस्त्र संगठन कहा गया है. पाकिस्तान के कश्मीर में आतंकियों और अलगाववादियों को खुले समर्थन और नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सेना द्वारा भारत के नागरिक इलाकों में गोलाबारी का रिपोर्ट में ज़िक्र भी नहीं है. सेना की कार्रवाही में मारे गए आतंकियों को निरपराध नागरिक करार दे के आंकड़ों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया है.  पत्थरबाज़ों की भीड़ द्वारा मारे गए और घायल हुए सैनिकों का ज़िक्र तक नहीं है. कश्मीर में न्यायालयों और ट्रिब्यूनलों को न्याय के रास्ते का अवरोध बताया गया है. रिपोर्ट में अत्याचार, यौन उत्पीड़न और नागरिकों के गायब होने के गंभीर आरोप सुरक्षा बलों पर लगाये गए हैं. ध्यान रहे कि कश्मीर में सुरक्षा बालों द्वारा यौन उत्पीड़न के एक भी मामले की रिपोर्ट तक नहीं है. इसलिए ये रिपोर्ट न केवल भ्रामक है बल्कि सीधे सीधे पाकिस्तानी प्रचार का एक और उदहारण है और आश्चर्य की बात है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय संस्था भी ऐसे भुलावे में आ गयी है.


रिपोर्ट जारी होने का समय भी ध्यान देने लायक है. रमजान के माह में जब कि गृह मंत्रालय ने कश्मीर में सेनाओं के एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की थी, वहीं ये रिपोर्ट आम जनता को भड़काने के लिए ठीक उसी समय रखी गयी. ये भी जानने योग्य तथ्य है कि 6 जुलाई को जेनेवा में होने वाले मानवाधिकार सम्मलेन में एफ़एटीएफ़ (FATF) ने पाकिस्तान द्वारा आतंकियों को आर्थिक समर्थन पर अपनी रिपोर्ट पेश करनी है.
मानवाधिकार हनन के मामलों पर एक नज़र डालें तो 1994 से ले कर 31 मई 2018 तक कुल मिलाकर 1037 शिकायतें मिली हैं जिन में से 1022 को जांच हो चुकी है और 15 की जाँच चल रही है. 1022 में से 991 मामलों को झूठा और निराधार पाया गया है. 31 मामलों में 70 लोगों को सज़ा हो चुकी है और 18 को हरजाना दिया हजा चुका है. इस प्रकार 97 प्रतिशत मामले गलत और सुनियोजित प्रचार तंत्र का हिस्सा हैं. दुर्भाग्य की बात है कि देश की मानवाधिकार संस्थाएं इस बात का संज्ञान नहीं लेतीं और न ही मीडिया इस बात पर चर्चा करने का इच्छुक है. ऐसी स्थिति में सैनिकों को झूठे मामलों में फंसा कर सेनाओं का मनोबल कम किया जा रहा है और पाकिस्तान अपने इस एजेंडे में पूरी तरह से सफल रहा है. हमारे गृह और रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों को चाहिए कि इस मुद्दे के तथ्यों को देश और विश्व के सामने लाएँ नहीं तो विश्व में हमारी छवि धूमिल होती रहेगी.