Wednesday, April 25, 2018


जितना मैंने लिखा भी नहीं है
उस से कहीं ज़्यादा पढ़ी गयी हो तुम
तुम्हारा चेहरा उतर आया है
इन पंक्तियों के बीच की खाली जगह में
हाशियों पर जाने कैसे उभर आया है तुम्हारा पता
और न जाने कैसे तुम्हारी खुशबू 
बन गयी है इन अधूरे गीतों की पहचान
सिर्फ नाम नहीं हो तुम
तुम एक अध्याय हो जो मेरी उम्र के
बहुत पहले आरंभ होता है
और जिसका अंत
इस एक जीवन में समायेगा नहीं
तुम वो विस्तार हो 
जिस पर अंकित हूँ एक बिंदु सा मैं
तुम्हारी छत पर गिरती 
सावन की पहली वर्षा की
लाखों बूँदों में से एक हूँ मैं
और सर्वव्यापी, सर्वज्ञाता सी तुम
उस एक बूँद को भी पहचान जाती हो
गिरने देती हो उसे अपने चेहरे पर
फिसलते हुए अपनी गाल के
उस गहरे गड्ढे में सिर्फ उसे ही रुकने देती हो
और सफल कर देती हो
मेरा बूँद होना
मेरी लायी आसमानी ठंडक
और तुम में बसी उल्काओं की गर्मी
मानों एक दूसरे के पूरक हैं
विषम होते हुए भी
हमारा जोड़, भाग, गुणा
सिर्फ एक होता है
एक पहेली सी, एक स्वप्न सी
किसी अलौकिक कलम से
गढ़ी गयी हो तुम
मेरी कविता
जितना मैंने लिखा भी नहीं
उस से कहीं ज़्यादा पढ़ी गयी हो तुम।

अमरदीप

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