औरंगजेब और शुजात बुखारी की ह्त्या : कश्मीर में गलत नीतियों का परिणाम
ईद से एक दिन पहले राष्ट्रीय राइफल्स के जवान
औरंगजेब की आतंकियों ने पुलवामा में अपहरण कर के निर्ममता से ह्त्या कर दी. ध्यान
देने वाली बात है कि सिर्फ २०१८ में ही १९ बड़े आतंकियों को औरंगजेब की बटालियन ने
मार गिराया है जिस में हिजबुल मुजाहिदीन का लीडर समीर बट शामिल था. औरंगजेब का
पूरा परिवार ही सेना से जुदा हुआ है. उसके पिता एक सेवानिवृत्त सैनिक हैं, चाचा ने
आतंकियों से लड़ते हुए शहादत पायी और उनका भाई भी सेना में ही है. साथ ही नियंत्रण
रेखा पर युद्ध विराम उल्लंघन में चार बीएसएफ के जवान शहीद हो गए. राइजिंग कश्मीर
के बड़े पत्रकार शुजात बुखारी और उनके सहयोगी की दिन दहाड़े हत्या पूरे तंत्र के
मुंह पर तमाचे से कम नहीं है. इस घटना को पूरी समस्या और हमारी नीतियों के सन्दर्भ
में देखा जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर ये हमारी हार है. राजनीतिक दलों को को और पाँच जवान संख्या में कम लगते हैं पर
अपने परिवारों के लिए वो पूरी दुनिया के
बराबर हैं.
ये पहली बार नहीं है जब कि आतंकवादियों ने ऐसा
किया है. पिछले साल, लेफ्टिनेंट उमर फैयाज़ को भी एक शादी के मौके से अपहृत कर के
अमानवीय तरीके से उनकी ह्त्या की गयी थी. पुलिस और सेना के जवानों पर सोचे समझे
हमले आतंकियों की नयी नीति है ताकि लोगों में डर फ़ैल जाए और सेनाओं का मनोबल टूटे.
ये सुरक्षा बलों की असहायता को उजागर करने का सफल तरीका है.जम्मू कश्मीर से हजारों की संख्या में जवान सेनाओं
में और अन्य सुरक्षा बलों में कार्यरत हैं और उनका इस लड़ाई में योगदान महत्वपूर्ण है.
पर आतंकियों का सूचना तंत्र गाँवों और यहाँ तक कि पुलिस बल के भीतर तक पहुंचा हुआ
है. आम कश्मीरी जो कि आतंकियों के जनाजों में हजारों की तादाद में शामिल हो कर आपना गुस्सा दिखता है, अपने ही
भाई एक सिपाही के मरने पर चूं भी नहीं करता. न ही अलगाववादी नेता, न ही कश्मीर के
राजनेता ऐसी हत्याओं की निंदा करते हैं. कारण ये है कि वो डरपोक हैं. मरने से डरते
हैं, आतंकी उनके साथ जो व्यवहार करें मंज़ूर है और इस तरह से बन्दूक के डर से ये
व्यापार चल रहा है. दूसरी ओर सेनाएँ युद्ध के नियमों से बंधी हैं, उन्हें
मानवाधिकार का पाठ घुट्टी में घोल कर पिलाया गया है और ज़रा सी चूक होते ही हाय
तौबा मच जाती है. यहाँ तक कि महबूबा मुफ़्ती जवानों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही का
आदेश देने से पहले एक बार भी नहीं सोचतीं.
बहादुर सिपाही औरंगजेब की ह्त्या एक बड़ा सवाल
है आतंकियों से हमारी इस लड़ाई के तरीके पर. इस समय मानवाधिकार संस्थाएं, देश की
बड़ी हस्तियाँ और पूरे विश्व में कश्मीर पर बोलने वाले विचारक सब चुप हैं. औरंगजेब
सेना में आते ही अपना कश्मीरी होने का हक़ खो जो बैठा था. शुजात बुखारी जो कि जाने
माने पत्रकार हैं उन्हें दिन दहाड़े मार दिया गया और इस हत्या को सुरक्षा एजेंसियों
पर मढ़ दिया गया है. कश्मीर और देश का बाकी मीडिया इसकी निंदा नहीं करेगा जब तक कि
ये घटना उन्हीं के साथ नहीं हो जाती. इस
तरह ह्त्या को भी आतंकी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. कारण है कि कश्मीर
घाटी की जनता जो दिन रात आज़ादी के नारे लगाती है वास्तव में आतंकियों की गुलाम है.
इसे वो स्वीकारेंगे नहीं पर ऐसी हत्याएँ इस गुलामी को और मज़बूत करती हैं. इस लड़ाई
को और नज़दीक से देखने समझने और फिर नीति परिवर्तान की सख्त आवश्यकता है.
शत्रु का साथ देना देशद्रोह है और हर वो व्यक्ति
जो इस बात का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करता है द्रोही है. उसके साथ भाईबंदी
करना या माफ़ी देना देश की सुरक्षा पर सीधा
प्रहार है. आतंकियों और उनके समर्थकों को आर्थिक और नैतिक समर्थन देने वाली जनता
इस विद्रोह का हिस्सा है, उन्हें कई दशकों से पुचकारे जाने की आदत हो चुकी है, हर
सुविधा कश्मीर में जम्मू और अन्य क्षेत्रों के मुकाबले आधे से भी कम दाम पर उपलब्ध
है, इसे रोका जाना चाहिए. इस व्यवस्था की कमर तोड़ने के लिए राजनीतिक इच्छा की
ज़रुरत है. सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए सैनिकों को इस प्रकार बलि का बकरा
बनाना गलत है. शुजात बुखारी सरकार के विरुद्ध लिखते थे और ऐसे में उनकी हत्या को
सुरक्षा बलों के सर डालना आसान है. सुरक्षा बल ऐसे काम नहीं करते. हत्याएं हमारी
नीति का हिस्सा नहीं हैं. हम मीडिया में ऐसी बातों का प्रतिकार नहीं करते वो एक
नीतिगत निर्णय है जो कि बदला जाना चाहिए. क्यूंकि सैनिकों को मीडिया में बोलने का
अधिकार नहीं है आतंकी और उनके समर्थक बुद्धिजीवी इस बात का गलत फायदा उठाते रहे
हैं. सेनाओं को चाहिए कि इस बात का हर स्तर पर मुकाबला करें. रक्षा मंत्रालय को
अपनी मीडिया नीति बदलनी होगी और अपने
सैनिकों को कमज़ोर और निर्बल साबित करते कानूनों में ज़रूरी बदलाव करने होंगे नहीं
तो औरंगजेब और उमर फैयाज़ जैसे बहादुरों की
कुर्बानी व्यर्थ जायेगी.