डार्विन जस्टिस : बिहार, नक्सल और प्रेम कहानी
अनय और चश्मिश कौन थे? मंडल
कमीशन रिपोर्ट और उसके बाद में होने वाले उपद्रवों ने कैसे उनकी छह साल से भी
ज्यादा चली प्रेम कहानी का इतना भयावह अंत किया ? “भूराबाल साफ़ करो” जातीय संघर्ष
में आने वाला कैसा नारा था ? क्या कभी कार्ल मार्क्स या लेनिन ने ऐसे नारे की
परिकल्पना की थी? बिहार में नक्सल, भूमिहीन बाभनों के छोटे खेतों में लाल झंडा गाड़
कर, क्या साबित करना चाहते थे? कहानी को कहने वाले का नाम क्या था और क्या मिक्की
और मोनालिसा ने सोचा था कि चश्मिश और अनय की निर्मम हत्याओं में उनका भी एक बड़ा
हाथ होगा?
डार्विन जस्टिस न सिर्फ इन सवालों के सटीक जवाब हमारे समक्ष रखती है बल्कि
1990 से ले कर आज तक चल रही राजनीतिक हलचल का एक बेबाक विश्लेषण भी करती है. एक
प्रेम कहानी के इर्द गिर्द वर्तमान का इतना सच्चा खाका बुनना पुस्तक को एक बहुत
ऊंचे दर्जे पर ले जाता है. भाषा में कसाव है, कहानी के पात्रों पर लेखक की मज़बूत
पकड़ है और पठनीयता ऐसी कि आप अंत को जानते समझते हुए भी पन्ने पलटने से खुद को रोक
नहीं सकते. दुनिया भर के समाजों में चल रही विषमताओं और विसंगतियों पर डार्विन
जस्टिस तीखा प्रहार करती है. बिना किसी छल कपट के और बिना अपने विचार पाठक पर
लादे, ये कहानी आपको २८ वर्ष पीछे ले जाकर घटनाओं को एक नए सिरे से सोचने पर विवश
करती है. बोफोर्स घोटाले, मंडल कमीशन रिपोर्ट, बाबरी मस्जिद का गिराया जाना और
उसका बिहार के प्रान्तों के जातीय ढाँचे पर पड़ने वाले असर और उस से उत्पन्न होने
वाले हिंसक आन्दोलन का गंभीर वर्णन है. बात ही बात में लेखक आपको लगभग हर मुद्दे
की तह तक ले जाता है पर आप पर निर्णय नहीं थोपता. भारतीय राजनीतिक गिरावट का
पुस्तक एक स्पष्ट और अचूक मूल्यांकन है. भाषा सरल और पात्रों का चुनाव इतना
इमानदार है कि आप बाभन चमन सिंह से भी सहमत होते हैं और नक्सल नेता मेघन से भी.
बूढ़ी पोपली तम्बोलन सारा समय अनय को मुफ्त पान खिलाती है, मोनालिसा छुपाकर उसके और
चश्मिश के बीच डाकिये का काम करती है और फिर भी ये दोनों अनय और चश्मिश के भीषण
हत्याकांड की न सिर्फ गवाह बनती हैं बल्कि उसमें बराबर की भागीदारी भी रखती हैं.
कहानी में प्रेम मुख्य विषय
न हो कर सामाजिक विषमताओं से उपजा राजनैतिक हिंसक आन्दोलन मुख्य विषय है. लेखक ने
हर कोण से विषयवस्तु को तराशा है और पढ़ते वक़्त उस देश काल में आप खुद ब खुद पहुँच
जाते हैं. डार्विन जस्टिस एक दुखांत लेकिन सच्ची कहानी है. लेखक ने न समय बदला है,
न घटनाएं और न ही उनको अंजाम देने वाले पात्रों को. लालू यादव, वी पी सिंह, राजीव
गाँधी इत्यादि नाम पुस्तक में उतनी ही सहजता से आते हैं जितना कि मेघन, मोनालिसा
वगैरह. इतिहास न होते हुए भी इतिहास होना और कहानी न होते हुए भी ऐसा प्रवाह रख
पाना साहित्य में शायद पहला प्रयोग है. लाल सलाम में लाल समाज के खून का रंग है. प्रवीण
कुमार की लेखनी में गाँव की मिट्टी की सच्चाई के साथ साथ जिए हुए युग की हर कड़वाहट
बराबर मात्रा में मौजूद है. पढ़िए डार्विन जस्टिस और खोजिये उन समस्याओं के हल जो
बहुत तेज़ी से हमें लील रही हैं. मात्र 160 रूपए में ये पुस्तक वाकई एक विस्फोटक
दस्तावेज है.
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